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वाराणसी

संत रविदास की जन्मस्थली बना आध्यात्मिकता और समानता का पवित्र केंद्र

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देश-विदेश से उमड़ते हैं श्रद्धालु

वाराणसी के सीर गोवर्धनपुर स्थित संत रविदास मंदिर न सिर्फ रविदासिया संप्रदाय के अनुयायियों बल्कि विभिन्न समुदायों के भक्तों के लिए भी एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। यह मंदिर भक्ति आंदोलन के महान संत और ‘संत शिरोमणि’ की उपाधि से विभूषित गुरु रविदास की जन्मस्थली है। भव्य वास्तुकला से सुसज्जित यह मंदिर गुरुद्वारे से प्रेरित है, जिसमें एक बड़ा गुंबद और 31 छोटे स्वर्ण जड़ित गुंबद स्थापित हैं।

मंदिर के गर्भगृह में वह स्थान है, जहां संत रविदास तपस्या करते थे। यहां एक प्राचीन सितार भी रखा गया है, जिसे वे प्रवचन के दौरान बजाते थे। हर साल गुरु रविदास जयंती पर लाखों श्रद्धालु इस पवित्र स्थल पर मत्था टेकने आते हैं।

जाति-वर्ग से परे मानवता का संदेश

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के समाजशास्त्र विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. विमल कुमार लहरी बताते हैं कि इस मंदिर में आने के बाद लोगों में जाति, धर्म और वर्ग की भावना समाप्त हो जाती है। यहां ‘मैं’ की जगह ‘हम’ की भावना जागृत होती है। संत रविदास का मानना था कि व्यक्ति की पहचान उसके कर्मों से होती है, न कि जाति या कुल से।

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मंदिर की स्थापना और ऐतिहासिक महत्व

संत रविदास मंदिर की स्थापना का श्रेय स्वामी सरवण जी महाराज को जाता है। 14 जून 1965 को स्वामी हरिदास के कर-कमलों से इसकी नींव रखी गई थी, जबकि निर्माण कार्य स्वामी गरीब दास को सौंपा गया था। 22 फरवरी 1974 को एक भव्य संत सम्मेलन में यहां संत रविदास की प्रतिमा स्थापित की गई।

उत्तर प्रदेश सरकार ने मंदिर परिसर में संत रविदास के जीवन और शिक्षाओं को दर्शाने के लिए एक संग्रहालय बनाने की योजना बनाई है। इसमें उनके विचारों और रचनाओं को भौतिक एवं डिजिटल रूप में प्रदर्शित किया जाएगा।

सामाजिक भेदभाव के खिलाफ संत रविदास की सोच

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संत रविदास सामाजिक भेदभाव और जातीय विषमताओं के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने समतामूलक समाज की परिकल्पना की थी, जहां हर व्यक्ति समान हो। उनका प्रसिद्ध दोहा—

“ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न।
छोट-बड़ों सब सम बसैं, रविदास रहें प्रसन्न।।”

इस बात को प्रमाणित करता है कि वे एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे, जहां भेदभाव न हो और सभी सुखी जीवन व्यतीत कर सकें।

उनकी विचारधारा ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ यह दर्शाती है कि आडंबरों से मुक्त, स्वच्छ और सरल जीवन ही सच्ची भक्ति है। उन्होंने ‘बेगमपुरा’ नामक एक आदर्श नगर की कल्पना की थी, जहां दुख, अन्याय और भेदभाव न हो।

गुरु नानक और कबीर से आध्यात्मिक संबंध

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संत रविदास गुरु नानक और संत कबीर के समकालीन थे। कई ग्रंथों में उल्लेख है कि गुरु नानक और संत रविदास की तीन बार मुलाकात हुई थी। वहीं, कबीर के साथ उनकी कई आध्यात्मिक चर्चाएं हुईं। कबीर उन्हें ‘संतों का संत’ मानते थे। संत रविदास, स्वामी रामानंद के 12 प्रमुख शिष्यों में से एक थे। उनके 40 भजन गुरु ग्रंथ साहिब में संग्रहीत हैं।

अनुयायियों के लिए प्रमुख तीर्थ स्थल

आज संत रविदास के अनुयायी उनकी शिक्षाओं को आगे बढ़ा रहे हैं। भारत ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में उनके विचारों के अनुयायी मठ, आश्रम और मंदिर स्थापित कर चुके हैं। उनकी जन्मस्थली न केवल रविदासिया धर्म के अनुयायियों के लिए, बल्कि सभी आध्यात्मिक साधकों के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल है।

देश-विदेश से श्रद्धालुओं का आगमन

हर साल गुरु रविदास जयंती के अवसर पर मंदिर में भव्य आयोजन किया जाता है। पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान समेत देशभर और विदेशों से हजारों श्रद्धालु यहां आते हैं।

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श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए भारतीय रेलवे ‘स्पेशल बेगमपुरा एक्सप्रेस’ ट्रेन चलाती है, जो जालंधर से वाराणसी तक जाती है।

मंदिर में हर समय लंगर की व्यवस्था रहती है, जहां सभी जाति-धर्म के लोग एक साथ बैठकर भोजन ग्रहण करते हैं। यहां आने वाले यात्रियों के लिए विशेष ठहरने की व्यवस्था भी उपलब्ध है।

संत रविदास का संदेश आज भी प्रासंगिक

संत रविदास का जीवन और उनकी शिक्षाएं मानवता, समानता और आध्यात्मिकता की प्रेरणा देती हैं। उनका विचार ‘सबका समान अधिकार’ आज भी समाज में सामंजस्य स्थापित करने के लिए बेहद प्रासंगिक है।

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