वाराणसी
अस्पताल में पथरी रोग का ऑपरेशन कराने गए पत्रकार की आपबीती
रिपोर्ट – मनोकामना सिंह
वाराणसी| गलती बहुत बड़ी हुई, जिसे संबंधित विभाग के जिनियस और सेंसेटिव लोग महसूस भी करेंगे। सोशल मीडिया के प्लेटफार्म्स फेसबुक और व्हाट्स एप के जरिए मामला दूर तलक पहुंचा भी। मगर मामले की गूंज नक्कारखाने में तूती की तरह गूंजती हुई कहीं शून्य में खो गई। कुछ तो ग़लती करने वालों की रसूख और उनकी ऊपर तक पहुंच इसकी वज़ह बनी और कुछ भदोही के वरिष्ठ-गरिष्ठ पत्रकारों की उदासीनता तथा कुछ, बातों की तीर चलाकर प्रशासन की दुम उखाड़ लेने का जज्बा रखने वाले चरण चाटन पत्तलकारों के पापी पेट के कारण मामले की जन्म लेते ही हत्या हो गई।
इस विषय में आगे कुछ भी बताने से पहले हम आपको बता दें कि भदोही में कुछ ऐसे पत्रकार संगठन भी सक्रिय हैं। जिनके पेट में दर्द तब होता है जब बलिया के पत्रकार को पुलिस प्रताड़ित करती है। जो अपनी तथाकथित पत्रकार एकता का प्रदर्शन तब करते हैं जब लखनऊ या दिल्ली में किसी पत्रकार को सताया जाता है। मगर जैसे ही अपने आस पास के किसी पत्रकार साथी के साथ कोई घटना घटती है। तो ये तथाकथित पत्रकार संगठन कोमा में चले जाते हैं। कोई अपनी दादी की मौसी की तेरहवीं में व्यस्त हो जाता है तो किसी के चाचा के साढ़ू के भतीजे की पत्नी गंभीर रूप से बिमार हो जाती है। और कोई तो बेचारे अचानक ही इतने सन्यासी टाइप के हो जाते हैं कि उन्हें कहीं से जानकारी ही नहीं मिल पाती।
कुछ इसी तरह के एक ऐसे वाकए की पूरी ख़बर से हम आपको रूबरू करा रहे हैं। जिसमें भदोही के एक जाने माने हास्पिटल में एक पत्रकार के साथ हैवानियत भरा व्यवहार, वह भी आपरेशन थियेटर के अंदर किया जाता है और व्हाट्स एप ग्रुपों के माध्यम से जानकारी दिए जाने के बावजूद एकाध पत्रकार को छोड़कर किसी भी माई के लाल ने इस मामले में चूं चपड़ करने तक का प्रयास नहीं किया।
पुलिस विभाग हो या जिला प्रशासन के किसी भी विभाग से संबंधित कर्मचारी की समस्या हो, या फिर आम जनमानस की कोई पीड़ा, सभी के दुख दर्द को अपना समझते हुए हर किसी के लिए डंके की चोट पर निस्वार्थ भाव से न्याय की आवाज बुलन्द करने वाले पत्रकार गंगाधर के पेट में दर्द होने पर उन्होंने जिला चिकित्सालय चेतसिंह में अल्ट्रासाउंड कराया तो पित्त की थैली में पथरी होने की जानकारी हुई। डाक्टर ने बताया कि इसे जल्द से जल्द आपरेट करवाइये वर्ना समस्या विकराल हो सकती है।
मरीज़ गंगाधर पत्रकार ने जब इस बारे में जानकारी ली तो पता चला कि भदोही के जीवन दीप हास्पिटल में इसके आपरेशन का खर्च पैंतीस हजार रूपए है जबकि यही आपरेशन जीवन धारा हास्पिटल में पचीस हजार रूपए में हो जायेगा।
पत्रकारिता का इतिहास उठाकर देखने पर पता चलता है कि सच्ची और साफ-सुथरी पत्रकारिता करने वाले अक्सर दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद करते पाए गए हैं। कुछ इसी तरह की समस्या गंगाधर के साथ भी थी। किसी तरह कुछ पैसों का इंतजाम करके वे विगत शुक्रवार 15 अप्रैल को जीवन धारा हास्पिटल पहुंच गए। रक्त जांच व ईसीजी के बाद उन्हें सीधे आपरेशन थियेटर के बाहर कतार में बैठा दिया गया। पता चला कि डाक्टर साहब ओटी में हैं,आपका नंबर आने पर बुलाया जाएगा। डाक्टर आरके पटेल जो इस समय जौनपुर जनपद के मड़ियाहूं विधानसभा सीट से अपना दल एस के नवनिर्वाचित विधायक भी हैं, आपरेशन करने में सिद्धहस्त और तेज तर्रार डाक्टर माने जाते हैं। पचीस तीस मिनट में धड़ाधड़ मरीजों को ओटी से बाहर निकाला जा रहा था। अपनी बारी आने पर गंगाधर जब ओटी में पहुंचे तो डॉक्टर आरके पटेल एक महिला का आपरेशन कर रहे थे। और दूसरी तरफ एक महिला के पेट पर टांकें लगाये जा रहे थे। बीच में खाली पड़े एक आपरेशन टेबल पर लिटाकर डॉक्टर आरके पटेल के एक सहयोगी डाक्टर ने फुटपाथ पर बिकने वाले तीन रुपए के प्लास्टिक रेजर से गंगाधर के पेट के बाल इस तरह बनाने लगा। जैसे किसी मरे हुए जानवर के शरीर से खाल उतार रहा हो। बाल बनाने के तरीके को देखकर गंगाधर की रूह कांप उठी। अंदर ही अंदर बुरी तरह खौफ़जदा गंगाधर ने बाल उतरवाई की रस्म के बाद, वहां से भाग निकलने में ही अपनी भलाई समझी और लघुशंका के बहाने आपरेशन थियेटर से बाहर निकल कर सीधे हास्पिटल के बाहर सड़क पर निकल कर ही दम लिया। बुरी तरह बदहवास गंगाधर पत्रकार ने घर पहुंच कर अपने पेट पर डाक्टर के हैवानियत भरे कृत्य का फोटो खींचा और सोशल मीडिया के प्लेटफार्म व्हाट्सएप और फेसबुक पर भी अपलोड कर दिया।
यहां सवाल यह नहीं है कि डॉक्टर आरके पटेल की उपस्थिति में उनके सहयोगी डॉक्टर ने ऐसा हैवानियत भरा कार्य क्यों किया, बल्कि सवाल यह है कि क्या ऐसा कार्य हर किसी मरीज के साथ नहीं किया जा रहा होगा..? क्या इस तरह का व्यवहार किसी भी मरीज़ के साथ किया जाना चिकित्सकीय जैसे देवतुल्य पेशे को कलंकित करने के लिए काफ़ी नहीं है..? कुछ लोगों ने गंगाधर पत्रकार पर बात को तिल का ताड़ बनाकर पेश करने का आरोप भी लगाया, तो आखिर आवाज कब उठानी चाहिए थी, जब गंगाधर के साथ कोई अप्रिय घटना घट जाती तब..? या फिर जिम्मेदारों को होश तब आता, जब अत्यधिक भयभीत होने के कारण गंगाधर का केस बिगड़ जाता और आपरेशन टेबल पर गंगाधर कोमा में चले जाते या फिर उनकी मौत हो जाती तब..? आखिर अन्याय और अत्याचार के छोटा या बड़ा होने की परिभाषा क्या है..? आखिर अपने हक के लिए, अपने साथ हुए ग़लत और अन्याय के लिए आवाज़ उठाने के सही समय का मानक कौन तय करेगा..? और सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न तो यह है कि इस समाचार के फ़्लैश होने के बाद सम्बन्धित विभाग या जिला प्रशासन द्वारा इस संबंध में उचित कार्रवाई कब तक की जायेगी..? और की भी जायेगी या फिर पत्रकारों के साथ हो रहे अन्याय की फेहरिस्त में एक पन्ना और जुड़कर रद्दी की टोकरी में कहीं गुम हो जायेगा..? खबर देखने और मामले की गंभीरता को समझने के बाद, सही और ग़लत का फैसला अब सिर्फ जनता जनार्दन के हाथ में है क्योंकि आज़ के समय में जब हर कोई अपनी रोटी सेंकने में लगा हुआ है तो ऐसे में जवाब और कार्रवाई सिर्फ जनता के ही हाथ में है।