चन्दौली
अम्मा का पेट पोछना बेटवा

चंदौली। हमारे यहाँ सबसे छोटे बच्चे को पेट पोछना कहते हैं। मुझे इस शब्द से बेहद प्यार है, क्योंकि मुझे ये उपाधि बचपन में मिली। वैसे तो मेरे कई नाम थे – मोनू, वीरेंद्र, भगवान जी, और अब लोग डॉक्टर साहब बुलाते हैं। पिता का प्यार तो बचपन में ही नहीं मिला, मगर भाइयों ने, बहनों ने, अम्मा ने मुझे बहुत ही प्यार से पाला। अम्मा की हर बात हमको याद रहती है।
जब मैं कक्षा 6 में था, तब अम्मा कहती – “बेटा, जो साइंस लेता है, वह डॉक्टर बनता है। तुम्हारी आर्ट बहुत अच्छी है, तुम डॉक्टर बन के दिखाओ।” जब भी मैं पतंग उड़ाता, तब भी कहती – “बेटा, पढ़ ले, भविष्य बना ले।” जब भी मैं खेलता – “बेटा, पढ़कर भविष्य बना ले।” जब भी मैं कहीं कुछ खाने-पीने के लिए जिद करता, तब भी कहती – “जो है, रूखा-सूखा, यही खाकर भविष्य बना ले।”
आज वह तो नहीं हैं, लेकिन अम्मा की याद मेरे दिल में हमेशा बरकरार है। आज उसके नाम से ही हम जाने जाते हैं – शारदा है तो मोनू है, शारदा है तो भगवान जी है, शारदा है तो डॉक्टर वीरेंद्र केसरी है। बिना शारदा के तो हम कुछ भी नहीं!
पर मुझे जो नाम सबसे ज़्यादा पसंद आता था, वो था पेट पोछना। पसंद आने के कारण भी थे। पर मुझे कभी पेट पोछना का अर्थ समझ नहीं आया था।
उम्र बढ़ने पर ये पता लगा कि ये शब्द उस बच्चे के लिए इस्तेमाल करते हैं जो सबसे छोटा हो। अर्थ ये रहता था कि सारे भाई-बहनों की सीरीज में सबसे छोटा और अंत में जन्म लेने वाला अवतार।
पेट पोछना के अधिकार असीमित रहते थे। बाल्यकाल में कुछ भी बोलो, कुछ भी करो, कुछ भी मांगो – वो मिल जाता था। दीदियों ने अपने इस सबसे छोटे भाई पर खुलकर प्यार लुटाया। पर दिक्कतें भी रहती थीं। सभी साधनों के अत्यधिक इस्तेमाल से बाकी लोगों की आंखों में मैं खटकता भी था।
खैर, पेट पोछना उपाधि के साथ जो प्यार मिलता था, वो सातवीं या आठवीं क्लास के बाद तब कम हो गया जब पढ़ाई-लिखाई का ज़ोर आया। घर में डांट पड़ी, सख्ती हुई, तब पढ़ाई की और मन मुड़ा और पेट पोछना जीवन से कहीं और छूट गया।
कभी-कभी वो दिन याद आते हैं तो आनंद आता है। समाज के सभी पेट पोछना को यह लेख समर्पित।