गाजीपुर
बहरियाबाद में जंजीर के मातम से गूंजा ‘या हुसैन’

गाजीपुर। जिले के बहरियाबाद कस्बे में मोहर्रम की आठवीं तारीख को शिया समुदाय के अजादारों ने जंजीर और कमा का मातम कर माहौल को गमगीन कर दिया। देर रात तक ‘या हुसैन या हुसैन’ की सदाएं फिजा में गूंजती रहीं। अजादारों ने इमाम हुसैन और अब्बास अलमदार की शहादत को याद करते हुए खुद को लहुलूहान किया। कर्बला के दुखद वाकये की याद में यह मातम किया गया। इस दौरान वक्त ए अस कर्बला से आ रही थी सदा, ‘ये हुसैन मरहबा, ये हुसैन मरहबा’। मातम करने वालों ने नंगे बदन जंजीर, छूरियों और कमा से अपनी पीठ पर वार कर हल्की चोटों से खून निकालकर शहादत को सलाम पेश किया।
शिया समुदाय में जंजीर का मातम कर्बला की याद में किया जाता है, जिसमें इमाम हुसैन और उनके साथियों के बलिदान के प्रति गहरा शोक और वफादारी व्यक्त होती है। इतिहास के अनुसार 680 ईस्वी में कर्बला की जंग में पैगंबर मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन ने अपने परिवार और साथियों के साथ यजीद की सेना के खिलाफ लड़ते हुए इस्लाम के सिद्धांतों की रक्षा के लिए शहादत दी थी। जंजीर का मातम इस बलिदान को याद कर उनके दर्द और प्यास की अनुभूति कराने का माध्यम है।
मातम के दौरान नौहा और मर्सिया पढ़े गए। पुरुष अजादार काले कपड़े पहनकर मातम में शामिल हुए। उनके हाथों में जंजीर थीं, जिनमें छोटे ब्लेड लगे थे, जो हल्की चोट के जरिए कुछ खून निकालते हैं। हर वार इमाम हुसैन के बलिदान की याद दिलाता है। इस प्रथा को आत्म-यातना नहीं बल्कि एक गहरी धार्मिक और आध्यात्मिक अभिव्यक्ति माना जाता है।
हालांकि इस प्रथा पर चोट और संक्रमण के खतरों को लेकर कई बार विवाद उठे हैं। आलोचकों का मानना है कि यह इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ है और शिया समुदाय की नकारात्मक छवि पेश करती है। इन चिंताओं को देखते हुए कई शिया धर्मगुरु अब रक्तदान शिविरों का आयोजन कर इमाम हुसैन को श्रद्धांजलि देने की वकालत करते हैं। बावजूद इसके, जंजीर का मातम आज भी शिया इस्लाम में कर्बला के बलिदान की याद और अटूट आस्था का प्रतीक बना हुआ है।