वाराणसी
बहनें सुबह 5:34 से बांध सकेगी भाइयों की कलाई पर राखी
रिपोर्ट – प्रदीप कुमार
हिंदू पञ्चाङ्ग के अनुसार प्रत्येक वर्ष श्रावण माह के शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा को रक्षा-बंधन मनाया जाता है ,
भाई-बहन के प्रेम उत्सव का प्रतीक महापर्व रक्षाबंधन,
इस वर्ष श्रावण माह के अंतिम दिन यानी गुरुवार 31 अगस्त को रक्षाबंधन का त्योहार मनाया जाएगा, इसमें कोई संसय नहीं है।
सुबह 5:34 बजे से लेकर पूरे दिन तक , बहनें सुविधानुसार श्रेष्ठ मुहूर्त में भाइयों की कलाइयों पर राखी बांध सकेंगी।
उक्त बातें आयुष्मान ज्योतिष परामर्श सेवा केन्द्र के संस्थापक साहित्याचार्य ज्योतिर्विद आचार्य चन्दन तिवारी ने बताया कि भद्राकाल और राहुकाल का विशेष ध्यान रखा जाता है।
भद्राकाल और राहुकाल में राखी नहीं बांधी जाती है, क्योंकि इन काल में शुभ कार्य वर्जित है।
क्योंकि भद्रा सूर्य की पुत्री है,जो इस वर्ष रक्षा-बंधन के दिन भद्रा का साया राखी पर एक दिन पहले ही समाप्त हो रही है। राखी बांधने के लिए शुभ मुहूर्त ,।
पूर्णिमा तिथि प्रारंभ: – 30 अगस्त बुधवार सुबह 10:12 मिनट से।
पूर्णिमा तिथि समापन: – 31अगस्त गुरुवार सुबह 07:45 मिनट तक।
शास्त्रों में कुमकुम के तिलक और चावल का अत्याधिक महत्व हैं।
यह तिलक विजय, पराक्रम, सम्मान, श्रेष्ठता और वर्चस्व का प्रतीक है।
तिलक मस्तक के बीच में लगाया जाता है।यह स्थान छठी इंद्री का है।
इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि अगर शुभ भाव से मस्तक के इस स्थान पर तिलक के माध्यम से दबाव बनाया जाए तो स्मरण शक्ति, निर्णय लेने की क्षमता, बौद्धिकता, तार्किकता, साहस और बल में वृद्धि होती है।
चावल लगाने से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
शास्त्रों के मुताबिक, चावल को हविष्य यानी हवन में देवताओं को चढ़ाया जाने वाला शुद्ध अन्न माना जाता है. कच्चे चावल का तिलक में प्रयोग सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करने वाला होता है।
चावल से हमारे आसपास की नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है।
इस दिन बहन भाई को तिलक लगाकर उसके दीर्घायु, समृद्धि व ख़ुशी आदि की कामना करती हैं।
भाई के कलाई पर रंग-बिरंगी राखियाँ बांधती हैं, वहीं भाई बहनों को उनकी रक्षा का वचन देते हैं
भाई-बहन के संबंध में भी एक पौराणिक कथा है कि एक बार बलि के आग्रह पर भगवान विष्णु ने उनके साथ रहना स्वीकार कर लिया है।
इसके बाद लक्ष्मी वेश बदलकर बलि के पास गईं और उनकी कलाई पर राखी बांधी जिसके बदले में बलि ने उनसे मनचाहा उपहार मांगने को कहा।
लक्ष्मी ने उपहार के रूप में भगवान विष्णु को मांग लिया
रक्षा-सूत्र या राखी बांधते हुए निम्न मंत्र पढें:-
ॐ येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।
अर्थात दानवों के महाबलशाली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो. इस प्रकार, पुरोहित अपने यजमान को रक्षासूत्र बांधकर उनको धर्म के पथपर प्रेरित करने की कामना करते हैं।
इस मंत्र के पीछे भी एक महत्वपूर्ण कथा है, जिसे प्रायः रक्षाबंधन की पूजा के समय पढ़ा जाता है। एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से ऐसी कथा को सुनने की इच्छा प्रकट की, जिससे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाती हो। इसके उत्तर में श्री कृष्ण ने उन्हें यह कथा सुनायी–
प्राचीन काल में देवों और असुरों के बीच लगातार 12 वर्षों तक संग्राम हुआ। ऐसा मालूम हो रहा था कि युद्ध में असुरों की विजय होने को है।
दानवों के राजा ने तीनों लोकों पर कब्ज़ा कर स्वयं को त्रिलोक का स्वामी घोषित कर लिया था।
दैत्यों के सताए देवराज इन्द्र गुरु बृहस्पति की शरण में पहुँचे और रक्षा के लिए प्रार्थना की।
श्रावण पूर्णिमा को प्रातःकाल रक्षा-विधान पूर्ण किया गया।
गुरु बृहस्पति ने ऊपर उल्लिखित मंत्र का पाठ किया; साथ ही इन्द्र और उनकी पत्नी ने भी पीछे-पीछे इस मंत्र को दोहराया। इंद्र की पत्नी इंद्राणी ने सभी ब्राह्मणों से रक्षा-सूत्र में शक्ति का संचार कराया और इन्द्र के दाहिने हाथ की कलाई पर उसे बांध दिया।
इस सूत्र से प्राप्त बल के माध्यम से इन्द्र ने असुरों को हरा दिया और खोया हुआ शासन पुनः प्राप्त किया।
