वाराणसी
Chandra Shekhar Azad : काशी ने दिया ‘आज़ाद’ नाम, लेकिन अस्थियों को नहीं मिल सका सम्मान

जयंती पर विशेष
वाराणसी। महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद का अस्थि कलश पिछले पांच दशकों से लखनऊ के चिड़ियाघर स्थित राज्य संग्रहालय की तीसरी मंजिल पर डबल लॉक में बंद है। यह अस्थि कलश आज भी उनकी शहादत की याद दिलाता है। अंग्रेजों के हाथों न पकड़े जाने की कसम खाने वाले आज़ाद ने अपने जिंदा शरीर को ब्रिटिश पुलिस के हाथ न लगने देने का प्रण लिया था।
उनकी शहादत के बाद किसी की हिम्मत न हुई कि अंग्रेजों से उनका पार्थिव शरीर मांग सके। तब कमला नेहरू ने बनारस में पुरुषोत्तम दास टंडन से उनके सगे फूफा शिवविनायक मिश्र को संदेश भेजवा कर इलाहाबाद बुलवाया। वहां पहुंचने तक शवदाह की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। मिश्र जी ने अधिकारियों को अपने और आज़ाद के रिश्ते की जानकारी दी और हिंदू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार की इच्छा जताई, जिसे स्वीकार कर लिया गया। इसके बाद संगम तट पर आज़ाद का अंतिम संस्कार किया गया और अस्थि कलश लेकर मिश्र जी काशी आ गए।
देश की आज़ादी के इंतजार में उन्होंने अस्थि कलश का विसर्जन नहीं किया। शिवविनायक मिश्र के निधन के बाद आज़ाद के फुफेरे भाइयों – राजीव लोचन मिश्र, फूलचंद मिश्र और श्यामसुंदर मिश्र – ने 10 जुलाई 1976 को अस्थि कलश राज्य सरकार के प्रतिनिधि सरदार कुलतार सिंह को समर्पित कर दिया।
इसके बाद एक अगस्त 1976 को महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से शोभायात्रा निकाली गई, जो 10 अगस्त 1976 को उत्तर प्रदेश के राज्य संग्रहालय पहुंचकर समाप्त हुई। तब से आज़ाद का अस्थि कलश वहीं रखा हुआ है। इस अस्थि कलश के साथ शिवविनायक मिश्र का हस्तलिखित पत्र भी है, जो उन्होंने शहीदे आजम भगत सिंह के भाई कुलतार सिंह को सौंपा था।
अस्थि कलश के दर्शन के लिए पहले प्रार्थनापत्र देना होता है। इसके बाद टीम गठित होती है और उसकी मौजूदगी में ही दर्शन कराया जाता है। विशेष यह है कि हिंदू धर्म में अस्थि कलश को गंगा या किसी पवित्र नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। अगर रखा भी जाए तो 24 घंटे उसका पूजन होता है और अखंड ज्योति जलती रहती है, लेकिन आज़ाद के अस्थि कलश को आज़ादी के 78 साल बाद भी यथोचित सम्मान नहीं मिल सका है।
चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को हुआ था। किशोरावस्था में उनके पिता ने उन्हें पढ़ने के लिए फूफा के यहां बनारस भेजा था। उस समय उनके फूफा काशी के पियरी क्षेत्र में रहते थे। काशी ने ही उन्हें ‘आज़ाद’ नाम दिया था। काशी उनकी कर्मभूमि थी।