धर्म-कर्म
भक्तों को मोक्ष प्रदान करने के लिए महादेव ने स्वयं स्थापित किया था काशी विश्वनाथ का श्रीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग
वाराणसी: वाराणसी शिव महापुराण में काशी स्थित श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा इस प्रकार बताई गई है. माता पार्वती ने एक बार परमेश्वर शिव से श्रीविश्वेश्वर धाम की महिमा सुनने की इच्छा प्रकट की.पार्वती के पूछने पर स्वयं महादेव ने श्रीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा बताई- यह पुरी अत्यन्त रहस्यात्मक है. यहां मेरा ध्यान करने वाले भक्त को ‘पाशुपत योग’ की प्राप्ति होती है भुक्तिऔर मुक्ति दोनों प्रकार का फल प्रदान करता है.शिवमहापुराण के अनुसार, अपने कैवल्य यानी अकेले भाव में रमण करने वाले अद्वितीय परमात्मा में एक बार एक से दो बनने की इच्छा हुई. उन्होंने सगुणरूप लिया और वही रूप ‘शिव’ कहलाने लगा.शिव ही पुरुष और स्त्री इन दोनों हिस्सों में प्रकट हुए. पुरुष भाग को शिवतथा स्त्रीभाग को ‘शक्ति’ कहा गया. सच्चिदानन्दस्वरूप शिव और शक्ति ने अदृश्य रहते हुए प्रकृति और पुरुष रूपी चेतन की उत्पत्ति की.प्रकृति और पुरुष अस्तित्व में आए और अपने सृष्टिकर्त्ता यानी माता-पिता को खोजने लगे लेकिन उन्हें अपने सृष्टिकर्ता का कोई संकेत न दिखा तो वे संशय में पड़ गए.
सी समय उन्हें निर्गुण ब्रह्म की आकाशवाणी सुनाई पड़ी- प्रकृति और पुरुष तत्व तुम दोनों को तपस्या करनी चाहिए जिससे कि बाद में उत्तम सृष्टि का विस्तार हो सके.उसके बाद भगवान शिव ने तपोस्थली के रूप में पांच कोस में फैले एक तेजोमय नगर का निर्माण किया जो शिव का ही साक्षात रूप था. उसके बाद उन्होंने उस नगर को प्रकृतिऔर पुरुष के पास भेजा, जो उनके समीप पहुंचकर आकाश में ही स्थित हो गया.तब पुरुष यानी श्रीहरि ने उस नगर में भगवान शिव का ध्यान करते हुए सृष्टि की कामना से वर्षों तक तपस्या की. उनकी तपस्या इतनी घोर थी कि श्रीहरि रूपी पुरुष के शरीर से श्वेतजल यानी पसीने की अनेक धाराएँ फूट पड़ीं.उस पसीने से सम्पूर्ण आकाश भर गया. वहां पसीने के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता था. उसके बाद भगवान श्री हरि मन ही मन उश विचित्र स्थिति का विचार करते हुए उसका अवलोकन करने लगे.उस आश्चर्यमय दृश्य को देखते के लिए उन्होंने अपना सिर हिलाया तो उनके एक कान से मणि खिसककर गिर पड़ी. श्रीहरि के कर्ण यानी से मणि के गिरने के कारण वह स्थान ‘मणिकर्णिका-तीर्थ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया.
उनके शरीर से फूटी महान जलराशि में जब पंचक्रोशी डूबने लगी, तब निर्गुण निर्विकार भगवान शिव ने उसकी रक्षा के लिए शीघ्र ही अपने त्रिशूल पर धारण कर लिया.उसके बाद श्रीहरि अपनी पत्नी के साथ विश्राम करने लगे. उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ जिससे ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई. कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति भी निराकार शिव के निर्देश से हुई थी.शिव ने ब्रह्माजी सृष्टि की रचना का आदेश किया. ब्रह्माजी ने चौदह भुवन वाले ब्रह्माण्ड की रचना की. भगवान शिव सोचने लगे कि कर्मबंधन में फंसा प्राणी अगर मुझे प्राप्त करना चाहे तो वह कैसे मुझसे आकर मिले.यह विचार आते ही महादेव ने अपने भक्तों को कर्मबंधनों से मुक्त कर उनके सर्वकल्याण के लिए पंचक्रोशी को अपने त्रिशूल से उतारकर इस जगत में छोड़ दिया.भक्तों को अपने भगवान से भेंट की व्यवस्था देते हुए स्वयं परमेश्वर ने हीवहां एक अविमुक्त लिंग की स्थापना की थी.उन्होंने अपने अंशभूत हर (शिवरूप) को निर्देश दिया कि वह कभी भी काशी क्षेत्र का त्याग न करें.
शिव द्वारा रचित यह पंचक्रोशी क्षेत्र लोक का कल्याण करने वाला, कर्मबन्धनों से मुक्ति देकर मोक्ष प्रदान करने वाला है. ब्रह्माजी के एक दिवस पूरे हो जाने पर यह संसार प्रलयजल में समा जाता है.फिर भी अविमुक्त काशी क्षेत्र का नाश नहीं होता है, क्योंकि उसे भगवान परमेश्वर शिव अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं. ब्रह्माजी जब नई सृष्टि प्रारम्भ करते हैं तब भगवान शिव काशी को पुन: भूतल पर स्थापित करके इसका अस्तित्व बनाए रखते हैं.काशी के श्रीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग स्वयं महादेव द्वारा स्थापित है इसलिए इसे श्रेष्ठ शिवधाम माना जाता है. स्कंद पुराण में काशी तीर्थ की एक कथा है जो स्कंद ने अगस्त्य मुनि को सुनाई थी. महादेव ने अपने प्रिय नगर की रक्षा के लिए भैरव को नगर का अधिकारी बनाया है.
