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वाराणसी

दो साल बाद होगी विश्व प्रसिद्ध रामनगर की रामलीला, तैयारी शुरू

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वाराणसी| न बिजली की रोशनी और न लाउडस्पीकर की कानफाड़ू आवाज। बेहद साधारण सा मंच और खुला आसमान। यानी ये लीला सही अर्थों में मुक्ताकाशीय मंच पर होती है, लीला का मंच भी एक स्थान पर नहीं प्रसंग के हिसाब से अलग-अलग लीला स्थल हैं। लोगो को एक ही दिन में अलग-अलग प्रसंग के लिए अलग-अलग लीला स्थल पर भाग कर जाना होता है अन्यथा लीला का दृश्य छूट जाने का भय रहता है। मान्यताओं के अनुसार इस लीला का साक्षी बनने के लिए देवलोक से देवता भी धरती पर उतरते हैं। इस रामलीला को लेकर काशीवासी काफी उत्सुक हैं। वैसे भी इस रामलीला को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। कुछ यहीं करीब डेढ महीने तक निवास करते हैं। बनारस से रामनगर जाने के लिए जिला प्रशासन की ओर से बस की सुविधा भी मुहैया कराई जाती रही है।

गणेश पूजन के साथ पात्रों का प्रशिक्षण शुरू
यूं तो ये रामलीला नौ सितंबर अनंत चतुर्दशी से शुरू होगी। लेकिन उससे पहले श्रावण कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को रामनगर चौक स्थित रामलीला पक्की पर गणेश पूजन हुआ। इसके साथ ही लीला की संवाद पोथी लीला में प्रयोग होने वाले अस्त्र-शस्त्र का पूजन हुआ। इसी दौरान रामलीला ट्रस्ट के मंत्री जय प्रकाश पाठक ने रामलीला के निर्विघ्न पूरा होने का संकल्प लिया। इसके साथ ही शुरू हो गया रामलीला के प्रमुख पात्रों का प्रशिक्षण जो लगभग डेढ महीने से कुछ ज्यादा चलेगा।

रामनगर की रामलीला का दृश्य (फाइल फोटो)पूर्व काशिराज परिवार के वंशज कुंवर अनंत नारायण की मौजूदगी में शुरू होती है लीला
अनंत चतुर्दशी की शाम काशिराज परिवार के वंशज कुंवर अनंत नारायण सिंह बग्घी पर सवार होकर रामबाग पहुंचेंगे। इस शाही सवारी के आगे बनारस स्टेट के निशान के साथ डंका बजेगा। देर शाम रावण जन्म के साथ रामलीला आरंभ होगी।

रामनगर की रामलीला का इतिहास
-रामनगर के लोग बताते हैं कि महराज महीपनारायण सिंह एक बार चुनार में रामलीला के मुख्य अतिथि के रूप में गए थे। वह रामलीला स्थल पर कुछ विलंब से पहुंचे तब तक धनुष भंग हो चुका था। उनको इस बात का काफी मलाल था। 1855 में उन्होंने रामनगर की लीला को खुद शुरू कराई।
-महराजा महीपनारायण सिंह का बेटा उदित नारायण सिंह एक बार बुखार से तप रहा था। महराज ने लीला में प्रभु राम से मनाया कि जल्दी ठीक कर दें। तभी लीला में राम ने एक माला महराज की ओर फेंका, उन्होंने माला उदित के माथे के नीचे रख दिया। सुबह युवराज पूरी तरह स्वस्थ हो गए।
-इस लीला के जरिए देश भर से साधु-संतो को इकठ्ठा किया जाता था। महराज द्वारा सभी को दान-पुण्य किया जाता था। ताकि काशी में कभी विपत्तियां न आएं। अब परम्परा खत्म सी हो गई है।
-रामनगर में आज भी अलग-अलग जगहों अयोध्या, जनकपुर, अशोक वाटिका, लंका बनाया जाता है। धनुषयज्ञ, राज्याभिसेख, सीताहरण, रावणवध अद्भुत दृश्यों का मंचन आज भी महराजा के सामने ही होता है।
-रामनगर की लीला महीने भर (31 दिन) चलती है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी से लेकर अश्विन पूर्णिमा तक चलती है।
-प्रतिदिन शाम को पांच बजे बिगुल बजता है। महराज की सवारी निकलती है। लीला सात बजे से रात दस बजे तक चलती है।
-देश की एक मात्र रामलीला है, जो 1855 से पेट्रोमैक्स की लाइट में होती है।
-राज्याभि‍षेक के दिन रातभर गद्दी पर बैठ दर्शन देते हैं भगवान राम
-कोई वाद्ययंत्र का प्रयोग लीला में नहीं होता, संवाद और ओपन थियेटर का सबसे बड़ा केंद्र है
-रामनगर की लीला में मुकुट का खास महत्व होता है। स्वरूप भगवन जब मुकुट धारण करते है, तो देवत्य के रूप में अराधना होती है। इसीलिए राज्याभिसेख के दिन महराज पैदल चलकर लीलास्थल पर आते हैं।
-रावण वध से अनोखी परम्परा जुड़ी है। राम का बाण लगते ही रावण जमीन पर गिर जाता है। थोड़ी देर बाद मुखौटा उतारकर भगवान राम का चरण बंदन करता है।
-राज्याभिषेक के दिन भगवान राम रातभर गद्दी पर बैठकर लोगों को दर्शन देते हैं।
-21वीं सदी में भी बनारस में कई पुरानी परम्पराएं मौजूद हैं और इन्हीं में से एक है रामनगर की मशहूर रामलीला. काशी के दक्षिण में गंगा के किनारे मौजूद ‘उपकाशी’ को ही रामनगर कहा जाता है।
-रामनगर के लोग राम को सबसे बड़ा देवता मानते हैं। काशी क्षेत्र में गंगा के बाएं किनारे पर शिव, जबकि दाहिनी ओर राम के भक्त मौजूद हैं।
-यह रामलीला आज भी उसी अंदाज़ में होती है और यही इसे और जगह होने वाली रामलीला से अलग करता है। इसका मंचन रामचरितमानस के आधार पर अवधी भाषा में होता है।

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