गाजीपुर
मूर्ति विसर्जन भारतीय संस्कृति का एक धार्मिक अनुष्ठान
बहरियाबाद (गाजीपुर)। हिंदू धर्म के अनुसार मूर्तियों को बनाकर पूजा अर्चना करने के बाद धार्मिक तरीकों का एक धार्मिक अनुष्ठान होता है जिसे भक्ति भाव के साथ मूर्ति विसर्जन करने के लिए जो गणेश चतुर्थी और दुर्गा पूजा जैसे बड़े त्योहारों के अंत में किया जाता है। यह उत्सव के दौरान स्थापित देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को जल में विसर्जित करने की क्रिया है। यह केवल एक धार्मिक प्रथा नहीं है, बल्कि जीवन के चक्रीय स्वभाव, नश्वरता और परमात्मा के निराकार स्वरूप में लौटने के प्रतीकात्मक अर्थ को भी दर्शाती है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जल को सृजन का आधार माना गया है, जिसमें सभी देवी-देवताओं का वास है। मूर्ति विसर्जन का अर्थ है, पूजन के दौरान मूर्ति में आमंत्रित की गई दैवीय शक्ति (चैतन्य) को वापस परम ब्रह्म में विलीन करना, जिसे ‘विसर्जन’ या ‘आवाहन’ (बुलाना) के विपरीत ‘विदा करना’ कहा जाता है। यह दर्शाता है कि रूप अस्थायी (अस्थिर) है और आत्मा अनश्वर है। गणेश विसर्जन के पीछे यह मान्यता भी है कि भगवान गणेश अपने भक्तों के दुख-दर्द अपने साथ ले जाते हैं और अगले वर्ष फिर आने का वादा करते हैं।

पर्यावरण पर प्रभाव और आधुनिक दिशा-निर्देश
परंपरागत रूप से मूर्तियाँ केवल पवित्र मिट्टी (चिकनी मिट्टी) से बनाई जाती थीं, जो आसानी से पानी में घुल जाती थीं और पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुँचाती थीं। लेकिन आधुनिक युग में, प्लास्टर ऑफ पेरिस , रासायनिक रंग, प्लास्टिक और थर्मोकोल जैसी गैर-बायोडिग्रेडेबल (गैर-जैव-निम्नीकरणीय) सामग्री के उपयोग से जल निकायों (नदियों, झीलों) में गंभीर प्रदूषण उत्पन्न होता है। इससे जलीय जीवन और पारिस्थितिकी तंत्र को भारी नुकसान पहुँचता है।

इस समस्या के समाधान के लिए, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और स्थानीय प्रशासन ने संशोधित दिशा-निर्देश जारी है। प्राकृतिक जल निकायों को प्रदूषित होने से बचाने के लिए, विसर्जन हेतु अस्थायी या कृत्रिम तालाब बनाए जाते हैं। कई शहरों में अब नदियों में विसर्जन पर सख्त प्रतिबंध और जुर्माना भी है।

मूर्तियों के विसर्जन से पहले फूल-मालाओं, वस्त्रों और अन्य पूजा सामग्री को अलग कर लिया जाता है। मूर्ति विसर्जन हमारी आस्था और संस्कृति का अभिन्न अंग है, लेकिन इसे पर्यावरण संरक्षण के साथ संतुलित करना आज की आवश्यकता है। परंपराओं को निभाने के साथ-साथ पर्यावरण-अनुकूल तरीके अपनाना समय की मांग है, ताकि हमारी नदियाँ और जलस्रोत स्वच्छ रहें और आने वाली पीढ़ियाँ भी इस पावन परंपरा का निर्वहन कर सकें।
