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चन्दौली

विजयदशमी पर्व पर देवी अपराजिता की पूजा से प्राप्त होती है सफलता, शांति और समृद्धि

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चंदौली। दशहरा पर्व पर विजय मुहूर्त में अपराजिता देवी की पूजा से भक्तों को हर संघर्ष में विजय व सफलता प्राप्त होती है। विजयादशमी पर अपराजिता पूजा का विशेष महत्व है। अपराजिता की पूजा से हर क्षेत्र में सफलता का वरदान भक्तों को मिलता है। दशहरा पर अपराजिता पूजा अजेयता, विजय और आत्मबल का प्रतीक है। देवी अपराजिता की आराधना से जीवन में सफलता, शांति और समृद्धि आती है। यह पूजा असत्य पर सत्य की विजय का शाश्वत संदेश देती है।

दशहरा, जिसे विजयादशमी भी कहा जाता है, भारत के सबसे प्राचीन व महत्वपूर्ण पर्वों में से एक है। विजयादशमी का दिन न केवल भगवान श्रीराम द्वारा रावण के वध का प्रतीक है, बल्कि मां दुर्गा द्वारा महिषासुर नामक राक्षस के संहार की स्मृति में भी मनाया जाता है। इस दिन का नाम “विजयादशमी” इसलिए पड़ा क्योंकि यह विजय प्राप्त करने का शुभ मुहूर्त माना जाता है। देश के हर राज्य में दशहरा की परंपरा अलग-अलग रूपों में मनाई जाती है, लेकिन अपराजिता पूजा सभी स्थानों पर एक समान भाव से की जाती है। यह पूजा उस देवी की होती है जो कभी पराजित नहीं होती है। पूजा देवी दुर्गा के अपराजिता स्वरूप की आराधना है, जो जीवन में विजय, शक्ति और आत्मविश्वास प्रदान करती है।

पुराणों में इस दिन विजय मुहूर्त में की गई पूजा को हर प्रकार की सफलता का प्रतीक माना गया है। अपराजिता देवी को “अजेय शक्ति” का प्रतीक माना गया है। धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि जब देवता व असुरों के बीच संग्राम हुआ, तब देवी दुर्गा ने “अपराजिता” रूप धारण किया। इस रूप ने सम्पूर्ण ब्रह्मांड में विजय की शक्ति का संचार किया। ‘अपराजिता’ का अर्थ है— वह जो कभी हार न माने, जिसे कोई पराजित न कर सके। शास्त्रों के अनुसार, देवी अपराजिता को विजय व सफलता की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। वे अपने भक्तों को साहस, दृढ़ निश्चय, और असफलता से लड़ने की शक्ति देती हैं।

जीवन में विजय की प्राप्ति के लिए कहा जाता है कि दशहरा के दिन अपराजिता देवी की पूजा करने से व्यक्ति को हर क्षेत्र में सफलता मिलती है। असफलता और शत्रु पर विजय के लिए अपराजिता पूजा शत्रुओं और नकारात्मक शक्तियों से रक्षा करती है। यह पूजा व्यक्ति के भीतर स्थित दिव्य ऊर्जा को जागृत करती है। देवी अपराजिता की आराधना से मन स्थिर और विवेकपूर्ण होता है।

नौ दिनों की दुर्गा पूजा व साधना के बाद दशमी को मां आदिशक्ति को अपराजिता स्वरूप में पूजकर विदा किया जाता है। यह मुहूर्त सूर्यास्त के पहले डेढ़ घंटे का माना गया है। इस समय पूजा करने से अपराजिता देवी की कृपा शीघ्र प्राप्त होती है। पूजा के लिए घर का पूर्व या उत्तर दिशा वाला हिस्सा चुना जाता है। इसे शुद्ध जल और गंगाजल से पवित्र करें। मिट्टी या चित्र के रूप में देवी अपराजिता की प्रतिमा स्थापित करें। कई स्थानों पर शमी वृक्ष के नीचे पूजा की परंपरा भी है। जल, चावल, फूल, दीपक, धूप, चंदन, नारियल, सुपारी, सिंदूर, फल और मिठाई रखें। “ॐ अपराजितायै नमः।” मंत्र का जाप करें। देवी से प्रार्थना करें कि वे जीवन में सभी कठिनाइयों को दूर करें और सफलता का आशीर्वाद दें। पूजा के बाद गरीबों को दान किया जाता है। इससे देवी प्रसन्न होती हैं।

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अपराजिता पूजा का उल्लेख स्कंद पुराण और देवी भागवत पुराण में मिलता है। इन ग्रंथों में कहा गया है कि जब भगवान श्रीराम ने रावण पर विजय प्राप्त की, तब उन्होंने देवी अपराजिता की पूजा कर युद्ध में सफलता का आशीर्वाद मांगा था। इसी प्रकार, पांडवों ने भी वनवास समाप्ति के बाद विजय मुहूर्त में देवी अपराजिता की पूजा कर अपने शस्त्र पुनः प्राप्त किए थे। इसलिए यह पूजा न केवल देवी की आराधना है, बल्कि “विजय की कामना और कृतज्ञता की अभिव्यक्ति” भी है। आज भी यह परंपरा सैनिकों व राजघरानों में जीवित है।इस लेख में दी गई जानकारी धार्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक मान्यताओं पर आधारित है।

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