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गाजीपुर

लुप्त होती जा रही रामलीला मंचन की परंपरा – सुजीत यादव

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नन्दगंज (गाजीपुर)। भारत की लोक संस्कृति अपने भीतर अनेक रंग और परंपराएं समेटे हुए है। इन्हीं परंपराओं में एक रामलीला मंचन का उत्सव है। आज से कुछ वर्ष पहले तक नन्दगंज बाजार, चाँडीपुर और आसपास के गांवों में बड़े उमंग, श्रद्धा व हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती थी। रामलीला का हृदयस्पर्शी उत्सव केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं है, बल्कि सामाजिक मेल-मिलाप एवं अच्छाई-बुराई का सांस्कृतिक पहचान का जीवंत उदाहरण है। लेकिन अब रामलीला मंचन की परंपराएं लुप्त होती जा रही हैं। बरहपुर गांव में 100 वर्षों से अधिक समय से चली आ रही रामलीला मंचन को नयी पीढ़ी सजोकर अब भी नए उत्साह के साथ करती आ रही है। इसलिए वहां की नव पीढ़ी बधाई की पात्र है।

पहले श्राद्ध पक्ष के दिनों में बालिकाएं मिट्टी की राम व सीता की प्रतिमा बनाकर उसे एक घर में स्थापित करती थीं। यह प्रतिमा ही पूरे उत्सव का केंद्र होती थी। इसी प्रकार प्रतिदिन संध्या के समय टोली बनाकर लड़कियां और महिलाएं मिलकर भजन व गीत गाती थीं। इन गीतों में लोक जीवन की सरलता, राम-सीता के प्रति श्रद्धा और सामूहिकता का स्वर झलकता था। पूजा के उपरांत प्रसाद वितरण किया जाता था, जिससे सहभागिता का भाव और गहरा होता था। उत्सव का समापन राम-सीता की आरती करके दशहरा के दिन रावण प्रतिमा का दहन होता था। चाँडीपुर के मौनी बाबा धाम में यह विशेष रूप से किया जाता था।

दस दिनों की संचालित रामलीला में रामचरितमानस और वाल्मीकी रामायण के अनुसार प्रतिदिन अलग-अलग लीलाएं पात्र मंच पर प्रस्तुत करके दशमी के दिन रावण दहन किया जाता था। रावण दहन मात्र एक धार्मिक अनुष्ठान न होकर एक बड़े सामाजिक मेले का रूप ले लेता था। इसमें आसपास के गांव से बच्चे, महिलाएं और पुरुष एकत्र होकर मेले में खाने-पीने की चीजों के साथ पारंपरिक मनपसंद खिलौना आदि खरीद कर आनंद उठाते थे। क्षेत्र में लोग दशहरे के मेले को छोटा मेला कहते थे। कोई बच्चा किसी बड़ी चीज का मांग करता था तो अभिभावक “बड़का मेला” अर्थात मौनी बाबा के मेला में दिलाने का आश्वासन देकर बच्चे को शांत कर देते थे।

लेकिन आज हम जब पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि यह परंपरा धीरे-धीरे समय की धूल में गुम होती जा रही है। आज लोगों का शहरीकरण, व्यस्त जीवनशैली और नई मनोरंजन विधाओं ने इस लोक उत्सव को विस्मृति के गर्त में पहुँचा दिया है। अब न तो गांव की गलियों में गीत सुनाई देते हैं और न ही मेले की चहल-पहल नजर आती है।

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फिर भी रामलीला का उत्सव हमें यह संदेश देता है कि लोक संस्कृति केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज को जोड़ने का माध्यम भी है। रामलीला के उत्सव के समापन पर रावण की प्रतिमा के दहन के साथ होता था। लेकिन यह सब लीलाएं दिन प्रतिदिन कमजोर पड़ती जा रही हैं।

यदि आने वाली पीढ़ियों को अपनी भारतीय संस्कृति की जड़ों से जोड़े रखना है, तो ऐसे उत्सवों को पुनर्जीवित करने का प्रयास बहुत ही जरूरी है। इसके लिए स्कूलों, सांस्कृतिक संस्थाओं और सामाजिक संगठनों को इस दिशा में आगे आकर पहल करनी होगी। क्योंकि किसी भी समाज की असली पहचान उसकी लोक संस्कृति से होती है, जिसमें रामलीला उत्सव भारत की उसी पहचान का अनमोल हिस्सा रही है।

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