गाजीपुर
“मनुष्य समझदार होते हैं, फिर भी धर्मों के बीच क्यों झगड़े होते रहते हैं”

बहरियाबाद (गाजीपुर)। आज के लोग एक धर्म के समूह को दूसरे धर्म के समूह से आपसी भाईचारा भूल कर बात-बात में झगड़ा करना शुरू कर देते हैं, इसका परिणाम यह होता है कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के बीच में मन-मुटाव पैदा हो जाता है।
मानव मस्तिष्क स्वाभाविक रूप से समूह बनाने के लिए विकसित हुआ है (विकासवादी मनोविज्ञान)। हम अपने समूह (जैसे, अपना धर्म, अपना देश) के प्रति वफादारी और सकारात्मक भावना महसूस करते हैं और बाहरी समूहों को संदेह या नकारात्मकता से देखते हैं। यह पूर्वाग्रह आसानी से भेदभाव और घृणा में बदल जाता है, जिससे यह विश्वास मजबूत होता है कि हमारा समूह “सही” है और दूसरा “गलत” या “खतरा” है। धर्म अक्सर इस समूह पहचान को परिभाषित करने का एक शक्तिशाली तरीका बन जाता है।
ऐतिहासिक रूप से, संघर्ष अक्सर संसाधनों (जैसे, भूमि, पानी, शक्ति, राजनीतिक प्रभाव) पर नियंत्रण के लिए शुरू होते हैं। जब ये संघर्ष धार्मिक पहचान की रेखाओं के साथ होते हैं, तो यह धार्मिक संघर्ष का रूप ले लेता है। कुछ सामाजिक वैज्ञानिक मानते हैं कि धार्मिक विचारधाराएँ केवल एक पहचान प्रदान करती हैं जिसके माध्यम से लोग राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संगठित होते हैं। धार्मिक उत्साह अक्सर असुरक्षा की भावना को कम करने और समूह को एकजुट करने का काम करता है। यह सिद्धांत बताता है कि लोग अपनी पहचान और आत्म-सम्मान का एक बड़ा हिस्सा अपने समूह की सदस्यता से प्राप्त करते हैं। अपने धर्म को श्रेष्ठ मानकर, व्यक्ति अपने स्वयं के आत्म-मूल्य को बढ़ाते हैं।
जब किसी के धार्मिक विश्वासों या प्रतीकों को चुनौती दी जाती है, तो यह व्यक्तिगत हमले जैसा महसूस होता है, जिससे रक्षात्मक और आक्रामक प्रतिक्रियाएँ आती हैं। संघर्ष को भड़काने के लिए अक्सर स्वार्थी नेता धार्मिक भावनाओं का उपयोग करते हैं। वे एक ‘हम बनाम वे’ का नैरेटिव गढ़ते हैं, जिसमें दूसरे धर्म को खतरा या दुश्मन के रूप में पेश किया जाता है। यह प्रचार लोगों के प्राकृतिक पूर्वाग्रहों का फायदा उठाता है और उन्हें बड़े पैमाने पर हिंसा या झगड़े में शामिल होने के लिए प्रेरित करता है, यह विश्वास दिलाता है कि वे एक पवित्र लड़ाई लड़ रहे हैं।
अपनी मान्यताओं पर सवाल न उठाना और दूसरों की मान्यताओं को स्वीकार न करना आलोचनात्मक सोच को कमजोर करता है और लचीलेपन को रोकता है। जब दो समूह पूरी तरह से विपरीत और अपरिवर्तनीय सत्य को मानते हैं, तो समझौते की गुंजाइश खत्म हो जाती है, जिससे संघर्ष होता है।
मनुष्य समझदार होते हैं, लेकिन उनकी समझदारी अक्सर समूह पहचान, भावनात्मक पूर्वाग्रहों और राजनीतिक/आर्थिक प्रेरणाओं से प्रभावित होती है। धार्मिक संघर्ष अक्सर धर्म के मूल सिद्धांत (जो आमतौर पर शांति और प्रेम सिखाते हैं) के कारण नहीं होते, बल्कि मानव मनोविज्ञान और समूह की गतिशीलता के कारण होते हैं, जो धर्म को एक शक्तिशाली पहचान और संगठन के साधन के रूप में उपयोग करते हैं।