वाराणसी
काशी के घाटों पर श्रद्धालुओं की भीड़, आठ लाख से अधिक ने किया पितृ श्राद्ध

वाराणसी। सर्व पितृ विसर्जन की पावन तिथि पर काशी के सभी प्रमुख गंगा घाटों पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ देखी गई। लोगों ने अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना करते हुए विधि-विधान से तर्पण, त्रिपिंडी श्रद्ध और पिंडदान किया। गंगा की निर्मल धारा में डुबकी लगाकर श्रद्धालुओं ने पितरों को श्रद्धांजलि अर्पित की। इस दौरान इस 2 हफ्ते में कुल मिलाकर 8 लाख से अधिक लोगों पितृ श्राद्ध किया।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को ‘सर्व पितृ अमावस्या’ कहा जाता है। यह तिथि पितृपक्ष की पूर्णाहुति का प्रतीक है। इस दिन ज्ञात और अज्ञात सभी पितरों का स्मरण कर श्रद्धापूर्वक तर्पण और पिंडदान करने से पूर्वजों की आत्मा को शांति मिलती है और वे इस लोक से विदा लेते हैं।
काशी के दशाश्वमेध घाट, शीतला घाट, राजेंद्र प्रसाद घाट, केदार घाट, अस्सी घाट, तुलसी घाट, पंचगंगा घाट, चौकी घाट, पांडेय घाट, रविदास घाट और पिचाश मोचन कुंड पर श्रद्धालु सुबह से ही जुटने लगे। पूरे दिन वैदिक मंत्रोच्चार के बीच पंडितों द्वारा तर्पण, पिंडदान और ब्राह्मण भोज का आयोजन किया गया।
तीर्थ पुरोहित बलराम मिश्र ने बताया कि इस दिन उन पूर्वजों का भी श्राद्ध किया जाता है जिनकी मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं होती। इसे ‘अज्ञात तिथि श्राद्ध’ कहा जाता है। इस अवसर पर कौए, श्वान (कुत्ते), गाय और विशेष रूप से ब्राह्मणों को भोजन कराना अत्यंत पुण्यकारी माना गया।
विधिवत पूजा का महत्व
सर्व पितृ विसर्जन के दिन विशेष विधि से पूजा होती है। परंपरा के अनुसार 16 ब्राह्मणों को भोजन कराकर वस्त्र, दक्षिणा, पात्र आदि का दान किया जाता है। सांयकाल घर के मुख्य द्वार पर दीप प्रज्वलित कर भोजन सामग्री रखी जाती है। मान्यता है कि पितर तृप्त होकर विदा होते हैं तो उन्हें उजाला और भोजन प्राप्त होता है।
श्राद्ध के प्रकार
श्राद्ध कुल 12 प्रकार के होते हैं:
नित्य: रोजाना किए जाने वाले श्राद्ध, जिसमें जलाञ्जलि शामिल होती है।
नैमित्तिक: साल में एक बार मृत्यु तिथि पर किया जाता है, इसे बरसी कहते हैं।
काम्य: किसी कामना के लिए किया जाने वाला श्राद्ध।
नान्दी: मांगलिक कार्यक्रमों में किया जाने वाला श्राद्ध।
पार्वण: पितृपक्ष, अमावस्या और मृत्यु तिथि पर किया जाने वाला श्राद्ध।
सपिण्डन: तीन साल में एक बार किया जाता है, अकाल मृत्यु में मरे पूर्वज को पिंडदान से जोड़ा जाता है।

गोष्ठी: परिवार या जाति के साथ समूह में किया जाने वाला श्राद्ध।
शुद्ध्यर्थ: अपनी शुद्धि के लिए किया जाने वाला श्राद्ध, जिसमें ब्राह्मण भोजन अनिवार्य है।
कर्माग: सोलह संस्कारों के निमित्त किया जाने वाला श्राद्ध।
दैविक: देवताओं के लिए किया जाने वाला श्राद्ध।
यात्रार्थ: तीर्थ स्थानों में किया जाने वाला श्राद्ध।
पुष्ट्यर्थ: अपनी संपन्नता और सुख-समृद्धि के लिए किया जाने वाला श्राद्ध।
श्राद्ध और पिंडदान करने से पितर प्रसन्न होते हैं और परिवार को आशीर्वाद देते हैं। इससे वंश वृद्धि, धन-धान्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है। पितरों की कृपा से परिवार में सुख-शांति बनी रहती है और जीवन की बाधाएं दूर होती हैं।
सर्व पितृ विसर्जन के साथ ही पितृपक्ष समाप्त हो जाता है। इसके अगले दिन महालया पर्व के साथ शारदीय नवरात्र का शुभारंभ होता है। धार्मिक दृष्टिकोण से यह संक्रमण काल अत्यंत शुभ माना जाता है।