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चन्दौली

आधुनिकता की चकाचौंध में विलुप्त हो गयी प्राचीन परम्परा ‘डोली’

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पुराने जमाने में राजा-महाराजा की शान होती थी ‘डोली’

चंदौली। एक दौर था जब ‘डोली’ सिर्फ एक सवारी नहीं, बल्कि शान और संस्कार की प्रतीक हुआ करती थी। राजा-महाराजाओं से लेकर आम जनमानस तक, हर किसी के लिए डोली विवाह की अहम कड़ी हुआ करती थी। मगर आज की आधुनिक रफ्तार में यह परंपरा धीरे-धीरे धुंधली होती जा रही है।

बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनपदों में, विशेषकर 1980 के दशक तक, विवाह में दुल्हन को डोली में विदा करना एक सामान्य और गरिमामयी परंपरा थी। उस दौर में बिना डोली के बारात अधूरी मानी जाती थी। लेकिन जैसे-जैसे समाज में आधुनिकता ने दस्तक दी, डोली की जगह चमचमाती मोटर गाड़ियों ने ले ली।

डोली का वजूद खत्म होने से कहार समाज का पुश्तैनी पेशा भी गुमनामी की ओर बढ़ गया है। एक समय था जब कहारों के बिना विवाह की कल्पना अधूरी थी। गांव-गांव में कहारों की टोली, शहनाई की गूंज और डोली की सजावट – यह सब भारतीय संस्कृति की गहराई को दर्शाता था।

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डोली न सिर्फ एक सवारी थी, बल्कि वह रिश्तों का अहसास, अपनापन और सामाजिक सौहार्द की बुनियाद थी। विवाह यात्रा के दौरान जब राहगीर डोली रोककर कहारों को पानी पिलाते थे, तो वह क्षण सिर्फ परंपरा नहीं, बल्कि आत्मीयता की मिसाल हुआ करता था।

आज के दौर में भले ही डोली संग्रहालयों या फिल्मों तक सिमट गई हो, लेकिन हमारी संस्कृति में उसकी जगह अमिट है। यह जरूरी है कि नई पीढ़ी इस विरासत को सिर्फ किताबों से नहीं, भावनाओं से भी समझे – क्योंकि डोली सिर्फ एक परंपरा नहीं, हमारी सांस्कृतिक पहचान थी।

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