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गाजीपुर

बिरहा विलुप्ति की कगार पर, पूर्वांचल की लोक परंपरा संकट में

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गाजीपुर (जयदेश)। भोजपुरी संस्कृति का अहम हिस्सा माने जाने वाला बिरहा, जो कभी गांव-देहात के कण-कण में गूंजता था, आज विलुप्ति के कगार पर पहुंच गया है। यह माटी से जुड़ी एक अद्भुत कला है, जो न केवल मनोरंजन का साधन रही, बल्कि धार्मिक और ऐतिहासिक गाथाओं को लोकमानस तक पहुंचाने का भी एक महत्वपूर्ण माध्यम थी।

संस्कृति और साहित्य का संगम
बिरहा में गीता, रामायण, महाभारत, बाइबिल, गुरु ग्रंथ साहिब और कुरान जैसे धर्मग्रंथों की कथाओं को छंदों और अलंकारों के साथ गाया जाता है। इसमें हिंदी साहित्य, गजल, नज्म, आल्हा, और वीर रस का अनूठा समावेश होता है। वीर शहीदों की गाथाओं, करुण रस और हास्य रस से सजी प्रस्तुतियां इस कला को और भी जीवंत बनाती थीं।

पूर्वांचल में बिरहा की परंपरा को समृद्ध बनाने वाले कलाकारों ने इसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। इनमें स्वर्गीय पारसनाथ यादव, बुल्लू काशी, राम अवध कवि, गया लाल वियोगी, हीरालाल यादव (पद्मश्री) और नारायण प्रसिद्धन कवि जैसे नाम प्रमुख हैं। इन विभूतियों ने अपनी प्रतिभा से बिरहा को लोक संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बनाया।

कला से विमुख हो रही युवा पीढ़ी
आज बिरहा गायक रोजी-रोटी के संकट से जूझ रहे हैं। दर्शकों की घटती दिलचस्पी और आधुनिक संगीत के प्रभाव के कारण युवा पीढ़ी इस विधा से विमुख हो रही है। कई कलाकार राजनीतिक दलों से जुड़कर अपनी जीविका चला रहे हैं।

बिरहा, जो कभी गांव-देहात के उत्सवों और मेलों की शान हुआ करती थी, अब गुमनामी की ओर बढ़ रही है। इस अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए समाज और सरकार को मिलकर प्रयास करना होगा। कलाकारों को प्रोत्साहन देने और बिरहा के प्रति नई पीढ़ी में रुचि जगाने की आवश्यकता है, ताकि यह अनमोल परंपरा भविष्य में भी जीवित रह सके।

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