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वाराणसी

गंगा में बहाई जा रही गाद, प्रशासनिक लापरवाही से बिगड़ रही वाराणसी की पहचान

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वाराणसी। गंगा की गोद में बसाए काशी के घाट अपनी ऐतिहासिक पहचान खोने की कगार पर हैं। शहर का अर्धचंद्राकार स्वरूप, जो कभी इसकी सुंदरता की पहचान था, अब गंगा में लगातार जमा हो रही गाद (सिल्ट) की वजह से खतरे में है।

प्रशासन द्वारा हर साल घाटों की सफाई के नाम पर उठाई गई लाखों टन गाद को गंगा में ही वापस प्रवाहित किया जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह तरीका वैज्ञानिक नहीं है और इससे गंगा का प्रवाह बाधित हो रहा है।

आईआईटी बीएचयू के पूर्व प्रोफेसर व नदी विज्ञान विशेषज्ञ डा. यू.के. चौधरी के अनुसार, कभी काशी में गंगा की लंबाई करीब 10 किलोमीटर और चौड़ाई 360 से 750 मीटर तक थी। लेकिन घाटों से उठाकर गंगा में डाली जा रही सिल्ट के कारण नदी की औसत ऊंचाई बढ़ रही है। इससे नदी का तल उथला होता जा रहा है और प्रवाह धीमा पड़ रहा है।

पर्यावरणविद प्रो. बी.डी. त्रिपाठी, पूर्व निदेशक, बीएचयू पर्यावरण एवं सतत विकास संस्थान, ने प्रशासनिक रवैये पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि प्रशासन एनजीटी (राष्ट्रीय हरित अधिकरण) की आड़ लेकर अपनी नाकामी छिपा रहा है। उन्होंने स्पष्ट किया कि एनजीटी की रोक केवल बालू खनन पर थी, गाद हटाने पर नहीं। “कछुआ अभयारण्य” अब अन्यत्र स्थापित किया जा चुका है, इसलिए गाद हटाने में कोई प्रतिबंध नहीं है।

प्रो. त्रिपाठी ने याद दिलाया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में असि घाट पर फावड़ा चलाकर स्वच्छता अभियान की शुरुआत की थी। उन्होंने स्वयं बाढ़ की गाद हटाकर संदेश दिया था कि गंगा की सफाई केवल कागजों पर नहीं, व्यवहार में उतारी जानी चाहिए।

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प्रो. कृपा राम का कहना है कि बाढ़ की गाद में सिल्ट की मात्रा सबसे अधिक होती है। यह हल्की और सूक्ष्म परत घाटों के किनारे जमने से घाटों की ऊंचाई बढ़ती जाती है। दीर्घकाल में यह गंगा के प्राकृतिक प्रवाह को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है।

विशेषज्ञों का मत है कि यदि सिल्ट को वैज्ञानिक तरीके से हटाकर उपयोग में लाया जाए, तो काशी का प्राचीन अर्धचंद्राकार स्वरूप पुनः स्थापित किया जा सकता है। इससे पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा और स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बल मिलेगा।

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