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गोरखपुर

‘हिसाब में रहो साहब, हम सब्र में हैं कब्र में नहीं’ – जज़्बात नहीं, जहर है ये

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गोरखपुर जैसे शांतिप्रिय और संस्कारशील शहर में बीते दिनों एक विवादित पोस्टर ने सामाजिक सौहार्द की जड़ों को झकझोरने का काम किया है। “हिसाब में रहो साहब, हम सब्र में हैं कब्र में नहीं” जैसे अल्फ़ाज़ किसी संवाद का हिस्सा नहीं, बल्कि समाज में जहर घोलने की एक सुनियोजित साज़िश हैं। यह शब्द किसी भी संवेदनशील नागरिक के दिल में बेचैनी पैदा करने के लिए काफी हैं। सवाल ये उठता है – आखिर कौन लोग हैं जो इस देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब को इस तरह जज़्बाती नारों के ज़रिए तोड़ने पर तुले हैं?

भारत हमेशा से “हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई – आपस में हैं भाई-भाई” की मिसाल रहा है। लेकिन कुछ अराजक तत्व आज इसी एकता को अपनी नफ़रत की राजनीति के लिए निशाना बना रहे हैं। समाज में आग लगाना, समुदायों को भड़काना, और माहौल को विषाक्त बनाना – ये सब एक सुनियोजित एजेंडे का हिस्सा है। जो लोग ऐसे नारे लगाते हैं, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र में “स्वतंत्रता” का अर्थ “अराजकता” नहीं होता।

यह केवल एक पोस्टर नहीं, बल्कि देश की सामाजिक समरसता पर किया गया हमला है। ऐसे शब्दों से शांति नहीं, बल्कि दंगे भड़क सकते हैं। यह संविधान, समाज, धर्म और देश – सभी के हित में एक घोर अमर्यादित और आपराधिक टिप्पणी है।
प्रशासन को चाहिए कि ऐसे तत्वों की पहचान कर सख्त कानूनी कार्यवाही करे, चाहे वे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय से हों। कानून की नज़र में सब समान हैं, और जो समाज की एकता को चुनौती देगा, उसे दंडित किया जाना ही चाहिए।

अब समय आ गया है कि शासन-प्रशासन ऐसी नफरत फैलाने वाली हर गतिविधि पर शून्य सहिष्णुता की नीति अपनाए। गोरखपुर की पहचान भाईचारे, सद्भाव और संस्कृति से है – न कि धमकी और जहर से।

कानून को हाथ में लेने की कोशिश करने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि इस देश की नींव सब्र, संस्कार और संविधान पर टिकी है और जो इसे हिलाने की कोशिश करेगा, वह खुद कब्र की ओर बढ़ेगा

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