गोरखपुर
डर का स्कूल बन गया कस्तूरबा विद्यालय, वार्डेन पर उत्पीड़न के आरोप, सहमीं बच्चियाँ
रोते हुए न्याय माँगते अभिभावक
गोरखपुर। “बेटी बचाओ–बेटी पढ़ाओ” का नारा जिस सरकारी विद्यालय में जमीनी हकीकत बनना था, वही कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय, उसवा बाबू आज मासूम बच्चियों के लिए भय का अड्डा बनता जा रहा है। विद्यालय की वार्डेन श्रीमती अर्चना पांडेय पर छात्राओं के साथ कथित मारपीट, मानसिक उत्पीड़न और दमनकारी रवैये के गंभीर आरोप सामने आए हैं। हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि बच्चियाँ विद्यालय जाने से डरने लगी हैं और अभिभावक अपने बच्चों का भविष्य अंधकार में जाता देख तड़प रहे हैं।
सरकारी संरक्षण में चलने वाला यह आवासीय विद्यालय, जहाँ गरीब और वंचित परिवारों की बेटियों को सुरक्षित माहौल और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलनी चाहिए थी, वहाँ आज डर, दहशत और आँसुओं का राज बताया जा रहा है। अभिभावकों का आरोप है कि वार्डेन द्वारा छोटी-छोटी बातों पर बच्चियों की पिटाई की जाती है, अपमानजनक शब्द बोले जाते हैं और भय का ऐसा वातावरण बनाया गया है कि मासूम छात्राएँ भीतर से टूट चुकी हैं।
अभिभावकों के अनुसार उनकी बेटियाँ घर आकर फूट-फूटकर रोती हैं। कई बच्चियों ने स्पष्ट कह दिया है कि वे अब उस विद्यालय में नहीं पढ़ना चाहतीं। विद्यालय का नाम सुनते ही उनका चेहरा पीला पड़ जाता है। सवाल यह है कि क्या यही है वह “सुरक्षित वातावरण”, जिसका भरोसा दिलाकर सरकार ने अभिभावकों से उनकी बेटियाँ ली थीं?
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि यह सब लंबे समय से चलता आ रहा है, लेकिन अब तक कोई ठोस कार्रवाई सामने नहीं आई। इससे शिक्षा विभाग की कार्यशैली और निगरानी व्यवस्था पर भी गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। क्या गरीब परिवारों की बेटियों की आवाज़ इतनी कमजोर है कि वह व्यवस्था के कानों तक नहीं पहुँचती?
पीड़ित अभिभावकों ने जिलाधिकारी गोरखपुर को लिखित शिकायत देकर पूरे मामले की निष्पक्ष जाँच की माँग की है। उनका साफ कहना है कि यदि वार्डेन को तत्काल नहीं हटाया गया, तो वे अपनी बच्चियों को वहाँ से निकालने को मजबूर होंगे। कुछ अभिभावकों ने तो बच्चों का स्थानांतरण प्रमाण-पत्र (टीसी) दिलाने की माँग भी उठाई है, ताकि वे किसी सुरक्षित विद्यालय में अपनी बेटियों का भविष्य बचा सकें।
यह मामला केवल एक विद्यालय तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सरकारी दावों और जमीनी सच्चाई के बीच की खाई को उजागर करता है। जब सवाल नौनिहाल बेटियों की अस्मिता, मानसिक स्वास्थ्य और भविष्य का हो, तब चुप्पी भी अपराध बन जाती है।
अब सबसे बड़ा सवाल क्या प्रशासन समय रहते जागेगा, या फिर मासूम बच्चियों का डर यूँ ही अनसुना होता रहेगा?
अभिभावकों की पीड़ा एक ही पुकार बनकर गूँज रही है—
“हमारी बेटियों को शिक्षा चाहिए, अत्याचार नहीं!”
