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धर्म-कर्म

तमिल समुदाय ने काशी में बसाया ‘लघु तमिलनाडु’, सदियों से जारी है देवयात्रा

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तमिल शैवों के लिए काशी है सर्वोच्च तीर्थस्थल

वाराणसी। तमिलनाडु और काशी का संबंध कोई आधुनिक परिचय नहीं, बल्कि सदियों पुरानी सांस्कृतिक आस्था में रचा-बसा है। ‘प्रयागे मुंडं, काशी दंडं, गया पिंडं…’ जैसी प्राचीन मान्यताओं में यह जुड़ाव स्पष्ट रूप से दर्ज है। इस मान्यता के अनुसार प्रयागराज, काशी और गया तीनों स्थान क्रमशः आत्मऋण, देवऋण और पितृऋण से मुक्ति के प्रमुख स्थल माने जाते हैं। काशी, विशेष रूप से तमिल शैव समुदाय के लिए अत्यंत पवित्र तीर्थ है।

तमिल समुदाय ने काशी में बसाया ‘लघु तमिलनाडु’

हनुमानघाट, केदारघाट और हरिश्चंद्र घाट के आसपास तमिल श्रद्धालुओं ने सदियों पहले अपनी धार्मिक यात्राओं के दौरान निवास स्थलों और पूजा परंपराओं के साथ एक छोटा सा ‘तमिलनाडु’ काशी में ही विकसित कर लिया। बताया जाता है कि शिव के अखंड सुख की खोज में दक्षिण भारत से तमिल शैव वर्षों तक पैदल चलकर काशी पहुंचे और यहां रहकर अपनी धार्मिक साधनाओं को पूरा किया।

सातवीं–आठवीं शताब्दी के प्रसिद्ध शैव संत अप्पार ने काशी के प्रति अपनी गहरी आस्था को इन शब्दों में व्यक्त किया है— “गंगा की रेत के असंख्य कणों को गिन लो, इंद्र वही अनेक हैं, पर ईश्वर एक ही असीम है।” उनके ये विचार तमिल संस्कृति की काशी के प्रति अनन्य श्रद्धा को दर्शाते हैं।

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प्रयागराज में मुंडन-वेणीदान, काशी में पिंडदान का विशेष विधान

हनुमानघाट के तमिल वैदिक विद्वान पं. वेंकट रमन घनपाठी बताते हैं कि तमिल धर्मग्रंथों के अनुसार प्रयागराज पहुंचकर श्रद्धालु आत्मऋण से उऋण होने हेतु संगम पर मुंडन कराते हैं। इसके बाद पुरुष अपनी पत्नी की चोटी गूंथते हैं और उसका अंतिम भाग सिंदूर, रोली, कुमकुम आदि के साथ गंगा में प्रवाहित कर देते हैं। यही प्रक्रिया मुंडन व वेणीदान कहलाती है।

इसके पश्चात वे काशी में कम से कम पाँच दिन का वास करते हैं। इस दौरान बाबा विश्वनाथ का दर्शन-पूजन, माता विशालाक्षी का आशीर्वाद और विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान संपन्न किए जाते हैं।

गंगा पूजन और पितृ तर्पण

तीर्थयात्री नौका द्वारा असि, दशाश्वमेध, पंचगंगा, मणिकर्णिका और वरुणा घाट पर स्नान कर गंगा की आराधना करते हैं। वहीं पितरों की मोक्ष कामना से तर्पण-अर्पण किया जाता है। इसके बाद माता अन्नपूर्णा के मंदिर में दर्शन कर अन्न-धन का दान करते हैं। गया पहुंचकर पिंडदान की परंपरा पूरी होती है। तमिल परंपरा में देवऋण से मुक्ति के लिए काशी का यह पड़ाव सबसे अहम माना गया है।

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काशी की अर्थव्यवस्था में तमिल दर्शन का बड़ा योगदान

पं. घनपाठी बताते हैं कि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से रोजाना हजारों श्रद्धालु काशी पहुंचते हैं। उनके आगमन से नौकायन, पूजा-सामग्री, होटलों, भोजनालयों, रिक्शा–टेम्पो चालकों और स्थानीय व्यापारियों को प्रत्यक्ष लाभ मिलता है। कई श्रद्धालु नंगे पैर काशी की गलियों में घूमकर अपनी धार्मिक यात्रा पूरी करते हैं।

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