धर्म-कर्म
काशी में अंतरगृही यात्रा शुरू, आत्मतत्व की खोज में उतरे श्रद्धालु
वाराणसी। अगहन मास की चतुर्दशी, त्रेता युग से चली आ रही काशी की प्रसिद्ध अंतरगृही यात्रा आज भी उतनी ही श्रद्धा के साथ संपन्न होती है। इस अवसर पर हजारों महिलाएं-पुरुष हाथ में झोरा और कपार पर बोरा धारण कर पवित्र नगरी की सड़कों पर नंगे पांव निकलते हैं। आस्था का यह अनूठा दृश्य सनातन परंपरा की निरंतरता का प्रमाण है।
श्रद्धालुओं की मान्यता है कि यह यात्रा केवल बाहरी परिक्रमा नहीं, बल्कि आत्मिक साधना का मार्ग है — अंतर्मन और आत्मतत्त्व की खोज की तपस्वी यात्रा। जन्म-जन्मांतर के पापों से मुक्ति और परिवार की सुख-समृद्धि की कामना लिए देशभर से आये श्रद्धालु इस परिक्रमा में शामिल होते हैं।
ठंड के बावजूद श्रद्धालु 24 घंटे में लगभग 25 किलोमीटर लंबा मार्ग पार करते हैं। इस दौरान वे विश्वेश्वर खंड, केदारेश्वर खंड और ओंकारेश्वर खंड में स्थित लगभग 75 देव विग्रहों का दर्शन करते हुए आगे बढ़ते हैं। मान्यता है कि इस तप एवं अनुशासन से विशेष पुण्य फल प्राप्त होता है।
यात्रा प्रारंभ होती है मणिकर्णिका तीर्थ स्थित चक्र पुष्करिणी में पवित्र स्नान और मणिकर्णिकेश्वर महादेव के दर्शन के बाद। वहां से श्रद्धालु बाबा विश्वनाथ के मुक्तिमंडप में संकल्प लेकर यह आध्यात्मिक यात्रा आरंभ करते हैं।
इसके बाद परिक्रमा दल अस्सी, लंका, खोजवां और बजरडीहा क्षेत्रों से होते हुए आगे बढ़ता है। ओम नमः शिवाय और भगवान राम-सीता के जयघोष के बीच यात्रा आगे बढ़ती है। सिद्धिविनायक, कंबलेश्वर, अश्वतरेश्वर, वासुकीश्वर आदि देवस्थलों के दर्शन पश्चात चौकाघाट पर बाटी-चोखा का भोग समर्पित कर श्रद्धालु रात्रि विश्राम करते हैं। अगले चरण में वे गंगा-वरुणा संगम पहुंचते हैं और अंत में फिर मुक्तिमंडप आकर यात्रा का समापन करते हैं।
यह परिक्रमा केवल धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक विरासत का ज्वलंत प्रतीक है। यह परंपरा लोगों को जोड़ती है, सकारात्मकता और आत्मिक शांति का संदेश देती है तथा भौतिक दुनिया से परे मोक्ष-मार्ग की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है।
सदियों से अविरल चली आ रही यह आस्था-यात्रा आज भी मानव जीवन को नई दिशा देने में और काशी की आध्यात्मिक पहचान को संजोने में विशेष भूमिका निभा रही है।
