शिक्षा
टपकती छतों के नीचे भविष्य गढ़ रहे बच्चे, छांव में बैठे जिम्मेदार
शिक्षा व्यवस्था की खुली पोल
वाराणसी। शहर के लहरतारा स्थित प्राथमिक विद्यालय (पूर्वोत्तर रेलवे-छित्तूपुर) की तस्वीर देश की मौजूदा सरकारी शिक्षा व्यवस्था की असल हकीकत बयां कर रही है। वर्ष 1950 में स्थापित इस विद्यालय में आज भी टीन शेड के दो कमरों और एक बरामदे में दो-दो स्कूल संचालित हो रहे हैं। बच्चों को न केवल टपकती छतों के नीचे पढ़ना पड़ रहा है, बल्कि बरसात में तो क्लास बंद करना मजबूरी हो जाती है।
यह स्कूल कभी रेलवे कर्मचारियों के बच्चों के लिए शुरू किया गया था, लेकिन अब केवल आसपास के गरीब परिवारों के बच्चे ही यहां पढ़ते हैं। स्थिति यह है कि राजकीय प्राथमिक विद्यालय (शिवपुरवा) के जर्जर भवन के चलते उसका भी विलय इसी परिसर में कर दिया गया। कुल 112 बच्चों को पढ़ाने के लिए न पर्याप्त कक्ष हैं और न ही पर्याप्त सुविधाएं। बरामदे को ही क्लासरूम बना दिया गया है जहां बच्चे बारिश में भीगते हैं, किताबें खराब हो जाती हैं और पढ़ाई ठप हो जाती है।
विद्यालय में बालक-बालिका के लिए अलग-अलग शौचालय की सुविधा नहीं है। दिव्यांगजनों के लिए बना एकमात्र शौचालय सभी छात्राएं भी इस्तेमाल करती हैं। शिक्षकों की स्थिति भी दयनीय है। सात शिक्षकों के लिए बैठने की कोई व्यवस्था नहीं है, प्रधानाध्यापिका खुद बरामदे में बैठती हैं। एक ही कमरे में दो कक्षाएं चलती हैं जिससे न केवल बच्चों का ध्यान भटकता है बल्कि शिक्षक भी प्रभावी तरीके से पढ़ा नहीं पाते।
शिक्षकों और अभिभावकों की एक ही मांग है कि इस विद्यालय के लिए पक्का भवन बने ताकि बच्चों को सुरक्षित और सम्मानजनक शिक्षा का माहौल मिल सके। लेकिन विद्यालय की ज़मीन रेलवे की है और किसी भी प्रकार के निर्माण के लिए उसकी अनुमति अनिवार्य है। कई बार पत्राचार और मेल के बाद भी रेलवे विभाग की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला है। हाल ही में प्रधानाध्यापिका ने प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर डीआरएम कार्यालय तक मेल भेजा है, पर स्थिति जस की तस बनी हुई है।
शहर के हृदयस्थल में स्थित इस सरकारी विद्यालय में न खेल का मैदान है, न पर्याप्त कक्ष, और न ही मूलभूत ढांचे की सुविधा। बावजूद इसके, नीतियों और घोषणाओं में ‘शिक्षा का अधिकार’ आज भी गर्व से दोहराया जाता है। सवाल उठता है कि क्या बच्चों का भविष्य टपकती छतों के नीचे ही आकार लेगा?
