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गाजीपुर

वाक्पटु और युगद्रष्टा थे स्वामी सहजानंद सरस्वती

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26 जून निर्वाण दिवस पर विशेष

दुल्लहपुर (गाजीपुर)। ईश्वर का साक्षात दीदार करने वाले विविध संतों, महात्माओं, ऋषियों, मुनियों के अलावा साहित्य, कला मर्मज्ञों, मातृभूमि की बलि बेदी पर प्राणोत्सर्ग करने वाले जांबाजों, वाक्पटु उद्भट विद्वानों जैसी उर्वरा भूमि गाजीपुर की मिट्टी का एक ऐसा संन्यासी, जिसने रोटी को किसान और मेहनतकश किसान को भगवान बताया।

समाज में व्याप्त बाह्याडंबर के विखंडक के रूप में चिरस्मरणीय रहने वाले बहुमुखी प्रतिभा संपन्न किसानों के नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती वाकई भारत के सर्वोच्च सम्मान “भारत रत्न” पाने के पहले हकदार हैं।

जी हां, जनपद मुख्यालय से तकरीबन तीस किलोमीटर दूर, पश्चिम जखनियां तहसील क्षेत्र के दुल्लहपुर थाना अंतर्गत देवा गांव में भूमिहार (ब्राह्मण) परिवार में 22 फरवरी वर्ष 1889 को फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को महाशिवरात्रि के दिन जन्मे, भारत में किसान आंदोलन के जनक एवं आदि शंकराचार्य परंपरा के परंपरागत दंडी संन्यासी स्वामी सहजानंद सरस्वती गांव के सामान्य किसान बेनी राय के पुत्र थे। इनके बचपन का नाम नौरंग राय था।

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बाल्यकाल में ही पिता का साया सिर से उठने के बाद इनका लालन-पालन इनकी चाची द्वारा किया गया। बड़ा होने पर उस जमाने के चर्चित जलालाबाद स्थित पाठशाला में आरंभिक शिक्षा के लिए नामांकन कराया गया, जहां से मिडिल परीक्षा पास कर प्रदेश में छठवां स्थान लाकर अपनी मेधाविता का परिचय देते हुए सबको चौंका दिया था। जिससे खुश होकर सरकार द्वारा पारितोषिक छात्रवृत्ति प्रदान की गई थी।

सबकुछ के बावजूद, अद्भुत अलौकिक प्रतिभा संपन्न कुशाग्रबुद्धि के बालक नौरंग राय का मन पढ़ाई के समय से ही आध्यात्मिक क्षेत्र में रमने लगा।

परिवार वालों ने नौरंग राय की मनःस्थिति भांपकर विवाह संस्कार के माध्यम से मोड़ने का प्रयास करते हुए विवाह के बंधन में बांध दिया। फलस्वरूप पत्नी का साथ दीर्घकालिक नहीं रह सका और एक वर्ष के बाद ही पत्नी का असामयिक निधन हो गया।

एक बार फिर परिवार वालों ने नौरंग राय के विवाह की बात सोची तो नौरंग राय गुपचुप तरीके से भाग कर काशी चले गए और वहां आदि गुरु शंकराचार्य परंपरा के संन्यासी अद्वैतानंद जी से दीक्षा ग्रहण कर संन्यासी बन गए। तदुपरांत उन्होंने करीब दो वर्षों तक देश भ्रमण और गुरु की खोज में समय बिताया।

वर्ष 1909 में पुनः काशी पहुंच कर अद्वैतानंद जी से दीक्षा ग्रहण कर दंड हासिल किया। फलस्वरूप सरस्वती के वरदपुत्र सहज आनंद की प्राप्ति कर सहजानंद सरस्वती हो गए।

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सन्यासी जीवन के दौरान काशी के उद्भट विद्वानों द्वारा स्वामी सहजानंद सरस्वती को संन्यास ग्रहण करने पर प्रश्नात्मक कड़वी सच्चाई का सामना करना पड़ा, जिसे विद्वता और विलक्षण प्रतिभा के जरिए स्वामी सहजानंद ने यह सिद्ध करके मनवाने को विवश किया कि ब्राह्मणेतर जातियों को भी दंड धारण करने का अधिकार है।

स्वामी जी ने काशी में रहते हुए बाह्याडंबर तथा धार्मिक कुरीतियों के खिलाफ मोर्चा खोला और निज जाति गौरव को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए भूमिहार ब्राह्मण सम्मेलनों का सफल आयोजन भी किया।

बीसवीं सदी के भारत के राष्ट्रवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में शुमार रहने वाले सहजानंद सरस्वती वाक्पटु होने के साथ-साथ युगद्रष्टा भी थे। पटना स्थित मौलाना मजहरुल हक़ के आवास पर महात्मा गांधी से हुई मुलाकात के बाद स्वामी जी गांधीजी के निवेदन पर कांग्रेस में शामिल हुए।

स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में ही बिहार में महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन प्रभावशाली ढंग से गतिमान हुआ। स्वामी जी ने बिहार में घूम-घूम कर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ मंत्र फूंक कर शासन सत्ता को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया।

जमींदारों के शोषण और अत्याचार से मुक्त कराने को छेड़े गए अभियान तथा बढ़ती लोकप्रियता से तंग आकर अंग्रेजों ने स्वामी सहजानंद जी को जेल के सलाख़ों में डाल दिया।

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कारावास के दिनों में जेल में बंद गांधी जी के चेलों की सुख-भोग जैसी सुविधाएं और उन सुविधाओं को पाने के लिए गांधीवादी कांग्रेसी नेताओं द्वारा छल-प्रपंच का आश्रय लिया जाना स्वामी सहजानंद को पसंद नहीं आया और कांग्रेस से मोहभंग होना शुरू हो गया।

इसी समय साल 1934 में बिहार में आए विनाशकारी भूकंप ने बिहार को झकझोर कर रख दिया। हालांकि स्वामी ने बढ़-चढ़कर राहत, बचाव और पुनर्वास कार्य में भाग लिया, लेकिन ऐसे हालात में जमींदारों द्वारा किसानों को जबरन टैक्स देने के लिए परेशान किया जा रहा था, जिसकी शिकायत स्वामी जी ने पटना में कैंप कर रहे महात्मा गांधी से की।

जिसके संदर्भ में महात्मा गांधी द्वारा दरभंगा महाराज से मिलकर किसानों के लिए जरूरी अन्न और सामग्री प्रबंध करने को कहा गया, जिस पर स्वामी सहजानंद आगबबूला हो गए और नाराज होकर चले गए।

स्वामी सहजानंद का नेताजी सुभाष चंद्र बोस से वैचारिक मेल के चलते काफी निकटता रही। स्वामी सहजानंद सरस्वती से सुभाष चंद्र बोस इतने प्रभावित थे कि साथ मिलकर कई समझौता-विरोधी रैलियां की गईं।

यहां तक कि अंग्रेजों द्वारा 28 अप्रैल को स्वामी सहजानंद सरस्वती को जेल भेजे जाने की तिथि 28 अप्रैल को “ऑल इंडिया स्वामी सहजानंद डे” घोषित कर दिया गया था।

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स्वामी जी ने ब्राह्मणों की एकता और संस्कृत शिक्षा पर जोर देते हुए सनातन धर्म के जन्म से लेकर मरण तक के संस्कारों पर केंद्रित एक किताब “कर्म-कलाप” की रचना की। बारह सौ पृष्ठों के विशाल पुस्तक का प्रकाशन भी वाराणसी से ही हुआ।

भारत में किसान हित की बात करने, किसानों की आवाज़ उठाने वाले आदि शंकराचार्य संप्रदाय के दसनामी संन्यासी अखाड़ा के दंडी संन्यासी स्वामी सहजानंद सरस्वती का महाप्रयाण मुजफ्फरपुर में 26 जून 1950 को हुआ और वे चिरनिंद्रा में लीन हो गए।

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