गोरखपुर
धनतेरस से दीपावली तक: उजियारे की अनोखी परंपरा, श्रद्धा और समृद्धि का दिव्य संगम
गोरखपुर। भारतीय संस्कृति में दीपों का पर्व दीपावली केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि अंधकार से प्रकाश की, अज्ञान से ज्ञान की और दुर्भाग्य से सौभाग्य की ओर ले जाने वाली एक आध्यात्मिक यात्रा है। इस पावन पर्व की शुरुआत होती है धनतेरस से, जो दीपावली से दो दिन पहले मनाई जाती है। यह परंपरा हजारों वर्षों से भारतीय जीवन का हिस्सा रही है और आज भी उतनी ही श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाई जाती है।
धनतेरस की उत्पत्ति और महत्व
धनतेरस, कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाई जाती है। पुराणों के अनुसार इस दिन समुद्र मंथन के समय धनवंतरि भगवान अमृत कलश और आयुर्वेद का ज्ञान लेकर समुद्र से प्रकट हुए थे। इसीलिए इस दिन का नाम पड़ा “धनत्रयोदशी” — धन और स्वास्थ्य का दिन।
भगवान धनवंतरि को आयुर्वेद का जनक माना गया है, और इस दिन उनकी आराधना से रोग, शोक और दरिद्रता का नाश होता है। इसी कारण घरों में स्वास्थ्य, समृद्धि और शुभता की कामना के साथ दीप जलाए जाते हैं।
लोक परंपरा में यह भी कहा गया है कि धनतेरस के दिन सोना, चांदी, तांबा या कोई नया बर्तन खरीदना अत्यंत शुभ होता है। यह शुभता इस विश्वास से जुड़ी है कि नई वस्तु लक्ष्मी का स्वागत करती है, और घर में आने वाली हर चमक समृद्धि का प्रतीक बन जाती है।
धनतेरस और आयुर्वेद का दिव्य संबंध
इस दिन घरों में आयुर्वेदिक औषधियां और दाल-धान्य का संग्रह करने की भी परंपरा रही है। यह संकेत करता है कि स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है। जब शरीर और मन स्वस्थ रहते हैं, तभी जीवन में समृद्धि और सुख का प्रवेश होता है। धनतेरस इस सच्चाई की याद दिलाता है कि भौतिक धन के साथ आध्यात्मिक संपन्नता भी उतनी ही आवश्यक है।
नरक चतुर्दशी का पौराणिक महत्व
धनतेरस के अगले दिन आती है नरक चतुर्दशी, जिसे छोटी दीपावली भी कहा जाता है। यह दिन असत्य पर सत्य और पाप पर पुण्य की विजय का प्रतीक है।
कथा के अनुसार, इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक दैत्य का संहार किया था, जिसने स्वर्ग और पृथ्वी पर अत्याचार फैला रखे थे। इस विजय के उपलक्ष्य में लोगों ने दीप जलाकर आनंद मनाया था। तभी से यह दिन पवित्रता, साहस और धर्म की विजय के रूप में मनाया जाने लगा।
नरक चतुर्दशी को सुबह तेल स्नान करने और दीपदान करने की परंपरा है। यह क्रिया आत्मशुद्धि और नकारात्मकता के नाश का प्रतीक है। मान्यता है कि इस दिन स्नान और पूजा से पापों का नाश होता है और आत्मा को नवचेतना प्राप्त होती है।
दीपावली – उजाले और उम्मीद का महापर्व
धनतेरस और नरक चतुर्दशी के बाद आता है दीपावली, जो पांच दिवसीय पर्व का सबसे महत्वपूर्ण दिन है। यह केवल दीपों का नहीं, बल्कि अंतरात्मा के जागरण का पर्व है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार, इस दिन भगवान श्रीराम चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे। उनके स्वागत में नगरवासियों ने तेल के दीप जलाए थे। तब से यह परंपरा निरंतर चलती आ रही है कि इस दिन दीप जलाकर हम अंधकार पर प्रकाश की विजय का उत्सव मनाते हैं।
दीपावली की रात माता लक्ष्मी और भगवान गणेश की पूजा का विशेष महत्व रखती है। लक्ष्मी धन और ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवी हैं, जबकि गणेश ज्ञान और बुद्धि के प्रतीक। दोनों की संयुक्त आराधना जीवन में संतुलन लाने का संदेश देती है—धन के साथ विवेक और समृद्धि के साथ शांति का महत्व।
अलौकिक संदेश और सामाजिक अर्थ
धनतेरस से दीपावली तक की यह यात्रा केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि मानव जीवन का प्रतीकात्मक उत्सव है। यह बताती है कि हर अंधकार का अंत प्रकाश से होता है। चाहे समय कितना भी कठिन क्यों न हो, उम्मीद और विश्वास के दीप बुझने नहीं चाहिए।
यह पर्व हमें सिखाता है कि दूसरों के जीवन में भी उजाला फैलाना ही सच्ची पूजा है। जिस दीप से हम अपने घर को रोशन करते हैं, उसी दीप की एक किरण यदि किसी और के जीवन में पहुँच जाए, तो वही सच्ची दीपावली है।
धनतेरस, नरक चतुर्दशी और दीपावली तीनों मिलकर मानवता के उस दिव्य दर्शन को उजागर करते हैं जिसमें धन, स्वास्थ्य, धर्म और प्रकाश का सुंदर संगम है। यह पर्व केवल झिलमिलाते दीपों का नहीं, बल्कि मानव हृदय के आलोक का उत्सव है, जो हमें याद दिलाता है कि सच्ची समृद्धि बाहर नहीं, हमारे भीतर जलते दीपों में बसती है।
इस बार जब आप दीप जलाएं, तो एक दीप उस विश्वास के नाम करें जो हर अंधकार को चुनौती देता है। जहाँ दीप जलता है, वहाँ आशा कभी नहीं बुझती।
