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गाजीपुर

क्या क़ुर्बानी क्रूरता है या प्रकृति और परंपरा की समझ का हिस्सा?

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बहरियाबाद (गाजीपुर)। ईद-उल-अज़हा के अवसर पर जब दुनिया भर के मुसलमान क़ुर्बानी की रस्म अदब और आस्था के साथ निभाते हैं, तब एक सवाल बार-बार उठता है क्या जानवरों को काटना क्रूरता का प्रमाण है या यह एक धार्मिक परंपरा के पीछे छिपी गहरी आध्यात्मिक और व्यावहारिक समझ का हिस्सा?

इस संदर्भ में सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि इस सृष्टि का रचयिता चाहे आप उसे ईश्वर, परमात्मा या अल्लाह कहें। वही हमारे जीवन की दिशा और मर्यादाएं तय करता है। जैसे एक इंजीनियर अपने बनाए विमान का ईंधन तय करता है, उसी तरह सृष्टिकर्ता ने भी यह स्पष्ट किया है कि मनुष्य क्या खा सकता है और क्या नहीं।

प्राकृतिक संरचना क्या कहती है?

जीव विज्ञान के अनुसार, प्राणी तीन श्रेणियों में आते हैं —

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1. मांसाहारी (जैसे शेर, कुत्ते)

2. शाकाहारी (जैसे गाय, बकरी)

3. सर्वाहारी (जिसमें इंसान आता है)

मनुष्य के दांतों की बनावट, पाचन तंत्र और जैविक संरचना यह दर्शाती है कि वह मांस और वनस्पति दोनों को पचा सकता है। उदाहरणस्वरूप, बीमार कुत्ता भी घास खाकर उल्टी करता है। प्रकृति स्वयं यह संकेत देती है कि भोजन के चयन का आधार शरीर की बनावट और आवश्यकता होनी चाहिए, न कि केवल भावनात्मक सोच।

इस्लाम में ज़िब्हा क्यों और कैसे?

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इस्लाम में क़ुर्बानी का तरीका जिसे ज़िब्हा कहा जाता है —सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी उचित माना गया है। इसमें तेज़ धारदार छुरी से गले की विशेष नालियों को इस तरह काटा जाता है कि स्पाइनल कॉर्ड न कटे, जिससे जानवर को न्यूनतम पीड़ा हो और अधिकतम रक्त बाहर निकले।

दर्द की अनुभूति मस्तिष्क से होती है। जब खून का प्रवाह मस्तिष्क तक बंद हो जाता है तो दर्द का अनुभव स्वतः समाप्त हो जाता है। ज़िब्हा की यह प्रक्रिया मीट को शुद्ध, कीटाणुरहित और सुरक्षित बनाती है, जबकि ‘झटके’ की पद्धति में खून शरीर में रह जाता है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हो सकता है।

क्या मांसाहार विकल्प नहीं?

कई मुस्लिम व्यक्तियों और परिवारों में जीवन भर मांस को हाथ न लगाने की परंपरा रही है। इस्लाम में मांसाहार अनिवार्य नहीं है, बल्कि एक वैकल्पिक अनुमति है। क़ुर्बानी का भी मुख्य उद्देश्य किसी जानवर को मारना नहीं, बल्कि त्याग, आस्था और आत्मिक समर्पण का प्रतीक है।

व्यावहारिक पक्ष: क्या शुद्ध शाकाहार संभव है?

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विश्व की 94% से अधिक आबादी किसी न किसी रूप में मांसाहार करती है। यदि सम्पूर्ण विश्व शुद्ध शाकाहारी बन जाए, तो खाद्य आपूर्ति और मांग का संतुलन बुरी तरह बिगड़ जाएगा।

वनस्पति भी सजीव है, जिसमें संवेदनशीलता और प्रतिक्रिया होती है यह विज्ञान भी स्वीकार करता है। क्या हम हवा में मौजूद सूक्ष्म जीवों की हत्या से अछूते हैं? नहीं। मनुष्य हर क्षण अनजाने में भी अनगिनत सूक्ष्म जीवों का अंत करता है।

क्या करूणा के नाम पर अतिवाद उचित है?

कई बार ऐसा देखा गया है कि ‘जानवरों के प्रति करुणा’ के नाम पर इंसानों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है।
किसी की धार्मिक आस्था को चोट पहुँचाना, उसे घेरकर पीटना, सामाजिक रूप से अपमानित करना। क्या यह वास्तविक करुणा है? करुणा का पहला नियम है – इंसानों को पहले समझो, फिर सुधारो।

धार्मिक पुस्तकों में भी पशु बलि का उल्लेख

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यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि जिन धार्मिक ग्रंथों को अहिंसा का प्रतीक माना जाता है, उनमें भी विभिन्न अवसरों पर पशु आहार और बलि का वर्णन है। केवल इस्लाम ही नहीं, दुनिया के अनेक धर्मों और परंपराओं में यह विधियाँ अस्तित्व में रही हैं।

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