गाजीपुर
अवथहीं की डोम बस्ती विकास से कोसों दूर, झोपड़ियों में सिमटी जिंदगी

सरकारी योजनाओं से वंचित डोम परिवार, सिस्टम की अनदेखी पर सवाल
भांवरकोल (गाजीपुर)। “सरकार, हमन के डोम हईं जा न, हमनी के दीन-दशा देखे वाला के बा? हं, जब चुनाव आवेला त बिन बोलवले निमन-निमन नेता लोग आ जालें वोट मांगे।”
इतना सा बात अभी अवथहीं निवासी रमेश डोम कह ही रहा था कि अपनी व्यथा-कथा कहने के लिए गोरख डोम तपाक से बोल उठा, “हं सरकार, तब हमनी के ओटवा न महकेला। हमनी के डोम होखल ही गुनाह बा, सरकार।”
जी हां, कोई बनावटी बात नईखे बल्कि कठोर सच्चाई है — स्थानीय विकास खंड क्षेत्र के ग्राम पंचायत अवथहीं गांव के सीवान में सूअर पालकर, बेना बनाकर जीवनयापन करने वाले डोम बस्ती के बदतर जीवन जीने वाले डोमों की। ये दशकों से अपनी टूटी-फूटी झोपड़ियों में जीवनयापन करते चले आ रहे हैं। इनकी झुग्गी-झोपड़ी बरसात के दिनों में इस कदर बजबजाती है कि उससे उठने वाली दुर्गंध से काफी दूर तक के राहगीर नाक बंद कर जल्दी से वहां से गुजर जाते हैं। विकास के क्षेत्र में जीरो टॉलरेंस पर काम करने वाली योगी सरकार के लिए एक काला धब्बा है इन डोमों की कारुणिक स्थिति।
गरीबों को दिया जा रहा आवास की सुविधाएं आज तक संबंधित अधिकारियों व कर्मचारियों की कृपा से इन्हें प्राप्त नहीं हो सकी हैं। स्थानीय गांव के इस डोम बस्ती में करीब तीन-चार परिवार रहते हैं। ये लोग सरकार की महत्वाकांक्षी विभिन्न विकासात्मक योजनाओं की लहर में भी सूअर पालन और बेना, डाली, दौरी आदि बनाकर किसी तरह अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं।
शौचालय का न होना इनके लिए सबसे बड़ी समस्या है — खुले खेतों में इन्हें व महिलाओं को शौच के लिए जाना पड़ता है, जहां खेत स्वामी अपनी फसल की सुरक्षा के लिहाज से सीधी बात न करके गाली देकर, तो कभी मारपीट कर, इन्हें खेत से लघुशंका करते ही भागने को मजबूर कर देते हैं।
अब प्रश्न अनायास उठता है कि आज सरकार घर-घर शौचालय बनवा रही है, गरीबों को रहने के लिए आवास दे रही है, शुद्ध पेयजल के लिए हैंडपंप उपलब्ध करा रही है — लेकिन अवथहीं के इस चार-पांच डोम बस्ती को इन सुविधाओं से वंचित क्यों रखा गया?
क्या ये सरकारी सुविधाएं पाने के लिए अपात्र हैं?
या फिर औरों की तरह सरकारी सुविधाओं को लेने के लिए ये साहबानों की जेब गरम नहीं कर पाते?
क्या इस डोम बस्ती के मकानहीन गोरख डोम, मनोज डोम आदि का पाप इतना ही है कि ये जाति से डोम हैं?
इनके घर की बहुओं को अपनी इज्जत बचाने का अधिकार नहीं है — तभी तो इन्हें खुले आकाश के नीचे मजबूरी में नहाना पड़ता है, क्योंकि ये आधुनिक भारत की “डोमिन” हैं।
जो कुछ भी हो, मानवीय लिहाज से इन्हें भी इनका हक और अधिकार मिलना चाहिए।
धिक्कार है अपने को गरीबों, दलितों के मसीहा बनने वाले तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ताओं व नेताओं की। खैर, इसके लिए हमारे संबंधित सरकारी अधिकारी भी कम दोषी नहीं हैं — जिनके सामने ये रोते-गिड़गिड़ाते हैं, पर उनके कान सुनते नहीं और आंखें देख नहीं पातीं। क्योंकि साहब की जेब बेचारे ये डोम गरम नहीं कर पाते हैं।
जी हां, साहबानों की जेब गरम न करना ही इन्हें पात्र नहीं बना पाता।
इस संबंध में जब स्थानीय गांव के सचिव पंकज त्रिपाठी से पूछा गया तो उन्होंने बताया कि “इस बार आवास सर्वे में सभी परिवारों को ले लिया गया है, धन आते ही इनका मकान बनवा दिया जाएगा।”
वहीं इस गांव के पूर्व सचिव ज्ञानेंद्र यादव ने गर्व से कहा कि “अपने कार्यकाल में एक डोम परिवार को आवास मैंने दिया था।”
अब देखना है कि सचिवों के बयानों से क्या वास्तव में इन डोम परिवारों का दिन बहुरेगा यह तो वक्त ही बताएगा।