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वाराणसी

कुलपति ने राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के निदेशक के साथ किये बैठक

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राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के सहयोग से दुर्लभ पांडुलिपियों का संरक्षण किया जाएगा- कुलपति प्रो बिहारी लाल शर्मा।

ऑनलाइन पांडुलिपियों का प्रति भी शोधार्थियों के उपलब्ध होगा– कुलपति प्रो बिहारी लाल शर्मा

तीन चरणों में दुर्लभ पांडुलिपियों का संरक्षण किया जाएगा– डॉ अनिर्वाण दास

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के द्वारा सरस्वती भवन पुस्तकालय में संरक्षित दुर्लभ पांडुलिपियों के माध्यम से भारतीय ज्ञान परंपरा का प्रसार वैश्विक स्तर पर स्थापित किया जाएगा।पांडुलिपियों के लिए अनुरक्षण/संरक्षण के लिए संस्कृति मंत्रालय (भारत)के द्वारा स्थापित राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के सहयोग से पांडुलिपि संरक्षण कार्य को कराया जाएगा। इसका सूचीकरण करके पेमेंट गेटवे के द्वारा इसे ऑनलाइन माध्यमों से ज़न सुलभ बनाया जाएगा।ऑनलाइन माध्यमों से पांडुलिपियों के प्रति डिजिटल स्वरुप मे उपलब्ध होने से देश- विदेश तक इन दुर्लभ पांडुलिपियों के अंदर निहित भारतीय ज्ञान परंपरा से लोग परिचित होंगे।इससे विश्वविद्यालय के आय में भी वृद्धि होगी। उक्त विचार आज अपरान्ह 12:30 बजे सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के कुलपति प्रो बिहारी लाल शर्मा ने पांडुलिपि संरक्षण के लिए राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के निदेशक के साथ हुये कुलपति कार्यालय एवं सरस्वती भवन पुस्तकालय में हुये बैठक में व्यक्त किया। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के निदेशक डॉ अनिर्वाण दास ने बताया– राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन, नई दिल्ली के निदेशक डॉ अनिर्वाण दास ने कहा कि यहां संरक्षित दुर्लभ पांडुलिपियों का संरक्षण तीन चरणों में किया जाएगा, प्रथम चरण मे सूचीकरण, द्वितीय चरण में कंजर्वेशन तथा तृतीय चरण में डिजिटलाइजेशन करेंगे।इस कार्य में तीन वर्ष का समय लगेगा।इसे तीन फेज में किया जाएगा। 40 प्रशिक्षित प्रशिक्षकों के साथ संरक्षण कार्य किया जाएगा- पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए 40 प्रशिक्षकों को तैयार करने के ऑनलाइन माध्यमों से 168 आवेदन प्राप्त हुये हैं इसी से 40 प्रतिभागियों का चयन प्रशिक्षण के लिए किया जाएगा। पांडुलिपि प्रशिक्षण के लिये 40 प्रतिभागियों को 15 दिवस का प्रशिक्षण देकर प्रशिक्षित किया जाएगा।प्रशिक्षण में लिखित और प्रायोगिक रूप से प्रशिक्षित किया जाएगा।पांडुलिपि प्रशिक्षण प्राप्त कर 40 विशेषज्ञों का दल पांडुलिपियों का संरक्षण कार्य करेगा। 5 करोड़ रुपये सरकार द्वारा प्राप्त– इस कार्य को प्रारम्भ करने के लिए 5 करोड़ रुपये भारत सरकार ने दिया है।इसके साथ ही और जरूरत पर सरकार धन उपलब्ध कराती रहेगी। सूचीकरण के बाद शोध हेतु पेमेंट गेटवे की सुविधा शुरू कराकर पांडुलिपियों की प्रति उपलब्ध कराये जाने का सुझाव दिया है। जनवरी के द्वितीय सप्ताह के बाद संरक्षण कार्य प्रारम्भ— ज्ञातव्य हो कि भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने यहां पर रखे दुर्लभ पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए इंदिरा गांधी कला केंद्र के राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन, नई दिल्ली के द्वारा एक उपचार के माध्यम से संरक्षित किया जाएगा।जिसको जनवरी माह के दूसरे सप्ताह में प्रारम्भ किया जाएगा। सरस्वती भवन पुस्तकालय- हस्तलिखित सरस्वती भवन पुस्तकालय का शिलान्यास 16 नवंबर 1907 ई को सरजान हिवेट द्वारा किया गया. लगातार सात वर्षों तक संस्कृति तथा संस्कृत के प्रेमी उदार राजाओं, महाराजाओं, श्रेष्ठ नागरिकों तथा कर्तव्यनिष्ठ राजकीय कर्मचारियों के अनवरत प्रयास से इस महान पुस्तकालय का वर्तमान भव्य भवन 1914 ई मे निर्मित हो गया और इस उद्देश्य की पूर्ति के पीछे सबसे बड़ा प्रयत्न संस्कृत महाविद्यालय के प्रधानाचार्य डॉ आर्थर वेनिस का था. 06 फरवरी 1914 ई शुक्रवार के शुभ मुहूर्त पर संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर महामहिम सर जेम्स स्कोर्गी मेस्टन के•सी•एस•आई की अध्यक्षता में इस पुस्तकालय का उद्घाटन समारोह सम्पन्न हुआ तथा इसका नाम प्रिंसेज ऑफ वेल्स सरस्वती भवन पुस्तकालय घोषित हुआ. इस पुस्तकालय को इस स्वतंत्र भवन के प्राप्त होने पर 24 अप्रैल ,1914 ई में महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज इसके प्रथम पूर्णकालिक ग्रंथालय अध्यक्ष नियुक्त हुए. इसके बाद डॉ मंगल देव शास्त्री, पंडित विश्वनाथ झारखंडी, पंडित नारायण शास्त्री खिस्तें,श्री लक्ष्मी नारायण तिवारी आदि लोगों ने पद को सुशोभित किया. 96 हजार दुर्लभ पांडुलिपियाँ संरक्षित– सरस्वती भवन पुस्तकालय में वेद, ज्योतिष, वेदांग, पुराण, व्याकरण आदि विषयों के 96 हजार दुर्लभ पांडुलिपियाँ संरक्षित की गई हैं. जिसमें मुख्यतः 1-श्रीमद्भागवतम् (पुराण) संवत-1181 देश की प्राचीनतम कागज़ आधारित पाण्डुलिपि है। 2- भगवद्गीता (पुराण) – स्वर्णाक्षरों में लिपि है। 3- दुर्गासप्तशती कपड़े के फीते पर दो इन्च चौड़ाई रील में अतिसूक्ष्म (संवत 1885 मैग्नीफाइड ग्लास से देखा जा सकता है। 4- रासपंचाध्यायी (सचित्र)-पुराणोतिहास विषय से युक्त-देवनागरी लिपि (स्वर्णाक्षर युक्त) इसमें श्री कृष्ण जी के सूक्ष्म चित्रण निहित है। 5- कमवाचा (त्रिपिटक पर अंश), वर्मी लिपि- लाख पत्र पर स्वर्ण की पालिस। 6-ऋग्वेद संहिता भाष्यम, इसके साथ ही यहां लाह,भोजपत्र, कपड़ा काष्ठ एवं कागज आदि पर लिपिबद्ध पांडुलिपियाँ संरक्षित की गई हैं।इसके साथ ही ये पांडुलिपिया देवनागरी, खरोष्ठी,मैथिली, उड़िया, गुरुमुखी,तेलगु, कन्नड़ और संस्कृत की विभिन्न लिपियों में लिखी गई हैं। संस्कृत विश्वविद्यालय परिचय- यह विश्वविद्यालय मूलतः ‘शासकीय संस्कृत महाविद्यालय’ था जिसकी स्थापना सन् 1791 में की गई थी। वर्ष 1894 में सरस्वती भवन ग्रंथालय नामक प्रसिद्ध भवन का निर्माण हुआ जिसमें हजारों पाण्डुलिपियाँ संगृहीत हैं। 22 मार्च 1958 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ सम्पूर्णानन्द के विशेष प्रयत्न से इसे विश्वविद्यालय का स्तर प्रदान किया गया। उस समय इसका नाम ‘वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय’ था। सन् 1974 में इसका नाम बदलकर ‘सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय’ रख दिया गया।

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