गोरखपुर
संतोष सिंह ‘अकेला’ की ग़ज़ल में झलकता जीवन का दर्शन और संवेदनाओं का सागर
गोरखपुर। जनपद के ग्राम सिलहटा मुंडेरा निवासी कवि संतोष सिंह ‘अकेला’ ने अपनी ग़ज़ल के माध्यम से जीवन के संघर्ष, रिश्तों की गहराई और सच्चे भावों का मार्मिक चित्रण किया है। उनकी रचना दिल को छू लेने वाली है, जिसमें दर्द भी है, दर्शन भी, और जीवन की सच्चाई भी। समाज की भागदौड़ में खोए इंसान को यह ग़ज़ल ठहरकर सोचने पर मजबूर करती है कि असली सुख क्या है — धन-दौलत या भावनात्मक संपन्नता।
ग़ज़ल
जो मेरा था मुझको, लगा कुछ नहीं।
मगर मैंने उससे, कहा कुछ नहीं।
धरातल पे रहता हूं लगता मुझे,
ग़रीबी से बढ़कर, मज़ा कुछ नहीं।
अदालत नहीं कर सकी फैसला,
भरोसा किसी का, बचा कुछ नहीं।
चुरा ले गया मेरा महबूब दिल,
मेरे पास मेरा, रहा कुछ नहीं।
पिताजी ने मुझसे कहा था कभी,
अगर मां है घर में, गया कुछ नहीं।
मुझे साथ उसके ही रहना है अब,
ज़माने में जिसका, पता कुछ नहीं।
ये दौलत के भूखे समझते कहां,
कभी कोई ले जा सका कुछ नहीं।
मुहब्बत का मेरा इरादा था पर,
लगा इससे बढ़कर, सज़ा कुछ नहीं।
इबादत नहीं कर सका जो कहा,
है खाली ये झोली, भरा कुछ नहीं।
नहीं मानता बाप की बात जो,
कहूं सच अगर तो, बना कुछ नहीं।
ज़माने में जो भी ‘अकेला’ हुआ,
कभी पास अपने, रखा कुछ नहीं।
संतोष सिंह ‘अकेला’
ग्राम – सिलहटा मुंडेरा,
पोस्ट – राजधानी, जनपद गोरखपुर
यह ग़ज़ल न केवल शब्दों का संगम है, बल्कि भावनाओं का सागर है। ‘अकेला’ जी ने अपने अनुभवों को ऐसी संवेदनशीलता से पिरोया है कि हर पाठक इससे खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है। उनकी रचना हमें यह संदेश देती है कि जीवन की असली पूंजी रिश्ते, विश्वास और भावनाएँ हैं — जिन्हें कोई भी दौलत नहीं खरीद सकती।
