गाजीपुर
गाजीपुर में ठेके की बाढ़, लाइब्रेरी सूखी

शिक्षा पर सिस्टम का तमाचा!
गाजीपुर। यूपी के गाजीपुर जनपद में शिक्षा और शराब की दिशा में एक गहरी और चिंतनशील तस्वीर सामने आ रही है। एक ओर युवाओं को सशक्त बनाने वाली लाइब्रेरी की संख्या नगण्य है, वहीं दूसरी ओर समाज को खोखला करने वाले शराब के ठेके तेजी से खुलते जा रहे हैं। यह विरोधाभास न केवल चिंता का विषय है, बल्कि नीति निर्धारण पर भी सवाल खड़े करता है।
वर्तमान वर्ष 2025 की बात करें तो गाजीपुर जनपद में आबकारी विभाग द्वारा 6 मार्च 2025 को लगभग 396 शराब की दुकानों (देसी शराब, कंपोजिट शॉप, मॉडल शॉप और भांग शॉप सहित) का आवंटन ई-लॉटरी के माध्यम से किया गया। यह आंकड़ा दर्शाता है कि जिले में शराब की उपलब्धता को प्राथमिकता के साथ बढ़ावा दिया जा रहा है। ठेके गांवों से लेकर कस्बों तक हर जगह खुल रहे हैं और आमजन, खासकर युवाओं तक शराब की पहुंच बेहद आसान हो गई है।
इसके उलट अगर शिक्षा की रीढ़ मानी जाने वाली लाइब्रेरी की बात की जाए, तो गाजीपुर में केवल एक जिला स्तरीय सरकारी पुस्तकालय संचालित है। लोग बताते हैं कि जिले में न तो नई लाइब्रेरी खोली गई है और न ही कोई बड़ा प्रयास इस दिशा में देखा गया है। ऐसे में हजारों युवाओं को आत्मनिर्भर बनाने और उनमें जागरूकता पैदा करने वाली लाइब्रेरी जैसी संस्थाएं उपेक्षित पड़ी हैं।
गाजीपुर में इन विरोधाभासी नीतियों के विरोध में अब आम लोग भी अपनी बात मुखरता से रखने लगे हैं। हाल ही में एक दीवार पर लिखी पंक्तियों ने सोशल मीडिया और जनमानस में हलचल पैदा कर दी—
“किताबें इंकलाब पैदा करती हैं इसलिए लाइब्रेरी बंद हैं शराबें गुलाम पैदा करती हैं इसलिए ठेके खुले हैं..!”
इस पंक्ति में आज की सामाजिक और प्रशासनिक सच्चाई का कड़वा परंतु सटीक चित्रण है। जब एक बच्ची यह संदेश दीवार पर रंगों से लिखती है, तब यह न सिर्फ एक व्यक्तिगत विचार होता है, बल्कि पूरे समाज का मौन विरोध बन जाता है।
इस स्थिति में सबसे बड़ा प्रश्न यही उठता है कि क्या सरकार और प्रशासन को शराब की दुकानों से मिलने वाला राजस्व समाज के नैतिक, मानसिक और शैक्षिक विकास के सामने अधिक महत्वपूर्ण लगता है? क्या यह सोच उचित है कि ठेके खोलकर राजस्व बढ़ाया जाए, लेकिन लाइब्रेरी खोलने में खर्च बचाया जाए?
यह विषय केवल गाजीपुर तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे प्रदेश और देश के लिए चेतावनी है। जिस समाज में किताबों को बंद करके शराब के ठेके खोले जा रहे हों, वहां इंकलाब की नहीं बल्कि गिरावट की नींव रखी जा रही होती है। समय रहते यदि यह दिशा नहीं बदली गई, तो आने वाली पीढ़ियों के हाथों में किताबें नहीं, बल्कि शराब की बोतलें होंगी – और तब शायद इंकलाब लाने के लिए शब्द भी नहीं बचेंगे।
यह ज़रूरी है कि हम शिक्षा को नशे के व्यापार से ज़्यादा प्राथमिकता दें, ताकि समाज ज्ञान, विवेक और स्वतंत्र सोच से विकसित हो, न कि नशे और गुलामी से पंगु।