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वाराणसी

बंदरों से परेशान लोग घर बेचने पर मजबूर

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वन विभाग और नगर निगम की उदासीनता से शहर में बंदरों का आतंक

वाराणसी। शहर में बंदरों का आतंक अब हर सीमा को पार करता जा रहा है। हालात बद से बदतर की तरफ़ अग्रसर है।स्थिति कितनी गंभीर है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अब बंदर प्रभावित इलाक़ों से लोग पलायन को मजबूर हो गये हैं।

पत्रकार स्वर्गीय कनिष्क देव गोरवाला के बड़े भाई 67 वर्षीय किशोर कांत गोरवाला ने दुर्गकुण्ड के ब्रह्मानंद कॉलोनी में बरसों पहले यह सोच कर घर बनवाया था कि पास में स्थित जैन मंदिरों में उन्हें दर्शन पूजन में सहूलियत होगी। परन्तु उनका यह फ़ैसला उस वक़्त ग़लत साबित हुआ जब उनकी कॉलोनी में बंदरों ने अपना घर बना लिया। बंदरों से बचाव के लिए उन्होंने ऊपरी मंज़िल को लोहे की जाली से घेर दिया।नीचे वे ख़ुद पत्नी के साथ रहते हैं।

वे बताते हैं कि बाहर अलगनी पर कपड़ा फैलाना मुश्किल है।इस बार दिवाली पर उनके घर में झालरों की रोशनी नहीं हो सकी। बंदरों ने झालरों को तहस नहस कर दिया। कई बार बंदर उनके ऊपर हमला कर चुके हैं। डर के मारे वे दरवाज़े बंद कर घर के अंदर क़ैद रहते हैं।

उन्होंने कहा कि बंदरों से निजात के संबंध वे नगर आयुक्त सहित अनेक अधिकारियों से मिल चुके हैं। लेकिन आश्वासन के सिवा कुछ नहीं मिला। मजबूर होकर वे अब अपना घर बेच कर बच्चों के पास नोएडा जाने की सोच रहे हैं। यह निर्णय पीड़ादायक तो है लेकिन कोई चारा नहीं है। अगर बंदरों ने उन्हें शारीरिक नुक़सान पहुँचाया तो कौन उनकी देखभाल करेगा।

कमोबेश यह स्थिति शहर की दर्जनों कॉलोनियों की है।पहले बंदर संकट मोचन के इर्द गिर्द की कालोनियों तक सीमित थे लेकिन अब वे सिगरा मलदहिया कबीरचौरा से लगायत रोहनीय चिताईपुर तक पहुँच चुके हैं।इन कॉलोनियों के लोगों की स्थिति किसी क़ैदी की तरह हो चुकी है। इन कॉलोनियों के घर किसी पिजड़े की माफ़िक़ दिखते हैं। बंदरों से सुरक्षा के लिए लोगों ने अपने घरों के बाहर लोहे की जाली लगवा रखी है।

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लाखों ख़र्च फिर भी समस्या जस की तस

वाराणसी में बंदरों की समस्या विकराल रुप लेती जा रही है।जब कोई बड़ी घटना होती है तब नगर निगम नींद से जागता है। इसके बाद मथुरा से बंदर पकड़ने वाली टीम बुलायी जाती है। इसके बाद कभी इमरान तो कभी इकराम टीम के साथ हाज़िर होता है।कितने बंदर पकड़ में आते हैं यह तो भगवान जाने लेकिन लाखों का बिल ज़रूर बनता है। इस समय प्रति बंदर पकड़ने का रेट 750 रुपये है। पहले यह 500 रुपये था।बंदर पकड़ कर जंगल में छोड़ने का नियम है। कितने बंदर पकड़े कितने छोड़े यह देखने वाला कोई नहीं। समस्या जस की तस बनी हुई है।

हर महीने सौ लोग पहुँच रहे अस्पताल

पिछले तीन महीने के आँकड़ों पर नज़र डालें तो तक़रीबन हर महीने क़रीब सौ लोग मंडलीय अस्पताल में बंदर से काटे का इलाज कराने पहुँच रहे हैं। अन्य अस्पतालों को जोड़ दिया जाय तो ये आँकड़े कहीं ज़्यादा हैं। इन मरीज़ों को एंटी रैबिज इंजेक्शन लगाया जाता है। वाराणसी में बंदरों से हमले में अनेक लोग अपनी जान गवाँ चुके हैं। कुछ माह पूर्व बड़ा गणेश इलाक़े में बंदरों के हमले में छत से गिर कर कंचन कुमार नामक एक चार्टर्ड अकाउंटेंट की मौत हो गई थी।

धार्मिक वजह से बंदरों को पकड़ने में बाधा।

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बंदरों की धर पकड़ में सबसे बड़ी बाधा धर्म है। लोग बंदरों में भगवान का रूप देखते हैं। अनेक कॉलोनियों में इन्हें खाना खिलाया जाता है। जबकि यह क़ानूनन जुर्म है। समय-समय पर वन विभाग जनता को आगाह भी करता है, लेकिन लोग नहीं मानते। धर्म के चलते बंदरों के ख़िलाफ़ उतनी सख़्ती नहीं हो पाती जितनी अन्य जंगली जानवरों के ख़िलाफ़ होती है।

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