वाराणसी
गंगा सफाई अभियान पर सवाल: पीएम मोदी की राह से भटकी अफसरशाही
बाढ़ की सिल्ट दोबारा बहाने से बढ़ा प्रदूषण, जवाबदेही से बचते अधिकारी
वाराणसी। साल 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने काशी से अपने पहले लोकसभा चुनाव में मां गंगा की स्वच्छता का संकल्प लिया था। उन्होंने कहा था— “मुझे किसी ने नहीं बुलाया, मां गंगा ने खुद बुलाया है।” दस साल बाद वे भावुक होकर यह कहते नजर आए कि अब उन्हें लगता है मां गंगा ने उन्हें “गोद ले लिया है।”
प्रधानमंत्री ने इस संकल्प को कर्म से भी निभाया। 8 नवंबर 2014 को उन्होंने असि घाट पर स्वयं फावड़ा उठाकर गाद हटाई और कूड़ा गाड़ी में डलवाया। इसके बाद सभी घाटों की सफाई कराई गई थी। उस समय गंगा किनारे की रेत (सिल्ट) को नदी में नहीं बहाया गया था, बल्कि सुरक्षित स्थानों पर ले जाकर डंप किया गया।
लेकिन आज, अफसरशाही की लापरवाही ने उस दिशा को भटका दिया है। हाल की बाढ़ में निकली लाखों टन सिल्ट को करीब एक करोड़ रुपये खर्च कर दोबारा गंगा में डाल दिया गया। इस कदम से न केवल गंगा उथली हो रही है, बल्कि उसमें सड़न और प्रदूषण भी बढ़ रहा है। अधिकारियों का तर्क है कि एनजीटी और खनन विभाग के नियम उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं, इसलिए सिल्ट हटाना संभव नहीं था।

प्रश्न यह उठता है कि जब प्रधानमंत्री ने स्वयं सिल्ट हटाई थी, तब क्या वे भी नियमों का उल्लंघन कर रहे थे? या फिर यह बहाना केवल जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का एक तरीका है?
विशेषज्ञों का कहना है कि बाढ़ से आई गाद को बालू नहीं कहा जा सकता। खनन विभाग की रोक बालू उत्खनन पर है, न कि नदी की गाद को हटाने पर। इसके बावजूद अफसर विभागीय जिम्मेदारी एक-दूसरे पर टालते रहे।
नगर निगम, सिंचाई विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और नमामि गंगे के बीच जवाबदेही का खेल चलता रहा, लेकिन गंगा में सिल्ट डालना जारी रहा। वाराणसी के कई अधिकारियों से संपर्क करने की कोशिश की गई, मगर अधिकांश ने फोन नहीं उठाया या बयान देने से परहेज़ किया।
नमामि गंगे परियोजना से जुड़े एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “सिल्ट गंगा की ही है, इसे वापस बहाने में कुछ गलत नहीं है।” वहीं सिंचाई विभाग के अधिशासी अभियंता हरेंद्र कुमार ने माना कि, “किसी भी नदी में गाद या अपशिष्ट डालना अनुचित है। यह कार्य गंगा संरक्षण समिति के नियंत्रण में आता है।”
गंगा में प्रदूषण घटाने के लिए पिछले एक दशक में अरबों रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन इस तरह की लापरवाही उस प्रयास पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है।
